Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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६।२
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * प्रास्रव-निरूपणम् *
卐 मूलसूत्रम्
स प्रास्त्रवः ॥ ६-२॥
* सुबोधिका टीका * त्रिविधोऽपि योगः भवत्यास्रवसंज्ञः । कर्माणामागमद्वारं प्रास्रवश्च बन्धकारणमास्रवोऽपि । उपर्युक्तत्रियोगः कर्मणि आगच्छन्ति बन्धमपि प्राप्नुवन्ति प्रतएव योगा एवास्रवाः । शुभाशुभयोः कर्मणोरास्रवरणादास्रवः सरःसलिलावाहि - निर्वाहि स्रोतोवत् ।
प्रथममत्र सूत्रेण योगस्वरूपं व्याख्या तदा चान्येनसूत्रेण तं योगमास्रवाहुः किमिति ? नात्र शङ्का कार्या। सर्वे योगा नैवास्रवाः कायादिवर्गणालम्बनेन य योगः सेवास्रवः । अन्यथा केवलिसमुद्घातमपि प्रास्रवं स्यात् ।। ६-२ ।।
* सूत्रार्थ-उक्त काय, वाङ् और मन इन तीनों ही प्रकार का योग 'प्रास्त्रव' कहा जाता है ।। ६-२ ।।
ॐ विवेचनामृत उक्त तीनों योग 'मानव' कहलाते हैं। योगों को आस्रव कहने का कारण यह है कि, इनके द्वारा कर्म का बन्ध होता है। आस्रव यानी कर्मों का आगमन । जैसे—व्यवहार में प्राण का कारण बनने वाले अन्न को (उपचार से) प्राण कहने में आता है, वैसे यहाँ कर्मों के आगमन के कारण को भी प्रास्रव कहने में आता है। जिस तरह जलाशय में पानी का आगमन नाली या किसी स्रोत द्वारा होता है, इसी तरह कर्मों का आगमन योग नैमित्तिक होने से इनको आस्रव कहते हैं। जैसे बारी द्वारा घर में-मकान में कचरा पाता है, वैसे ही योग द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं, इसलिए योग भी आस्रव है। जैसे पवन-वायु से आती हुई रज्ज-धल जल से भीगे कपड़े में एकमेक रूप चिपक जाती है, वैसे ही पवन-वायु रूप योग द्वारा आती हुई कर्म रूपी रज कषाय रूपी जल से भीगी प्रात्मा के समस्त प्रदेशों में एकमेक चिपक जाती है।
योग से कर्म का आस्रव, कर्म के आस्रव से बन्ध, बन्ध से कर्म का उदय तथा कर्म के उदय से संसार। इसलिए आत्मा को संसार से मुक्ति प्राप्त करने की अभिलाषा-इच्छा हो तो आस्रव का त्याग अवश्य ही करना चाहिए।
जैसे-छिद्रों द्वारा नौका-होड़ी में जल का प्रवेश होते वह समुद्र में डब जाती है, वैसे योगरूपी छिद्रों के द्वारा जीव-आत्मा रूपी नौका-होड़ी में कर्मरूपी जल का प्रवेश होने से वह संसाररूप सागर में डब जाती है।