Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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पञ्चमोऽध्यायः
[ ६३
(६) 'आत्मा अपेक्षा से अनित्य ही है और अपेक्षा से अवक्तव्य ही है ।" इस तरह यह छठा वाक्य है ।
(७) "आत्मा अपेक्षा से नित्य ही है, अपेक्षा से अनित्य ही है, तथा अपेक्षा से प्रवक्तव्य
५।३१
ही है ।"
उक्त इन सात वाक्यों में सात भंग यानी सात प्रकारों के होने से इन सात वाक्यों को 'सप्तभङ्गी' कहने में आता है । इन सात वाक्यों की रचना क्रमशः नीचे प्रमाणे है -
यथा - ( १ ) ' स्यात् नित्य' यहाँ स्यात् शब्द कहने का तात्पर्य यह है कि, नित्य धर्म सापेक्ष है, उसी को सूचित करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके प्रयोग से शेष धर्मों का उच्छेद नहीं होता है । ( २ ) स्यात् अनित्य, (३) स्यात् अवक्तव्य, (४) स्यात् नित्यानित्य, (५) स्यात् नित्य प्रवक्तव्य, (६) स्यात् अनित्य प्रवक्तव्य, ( ७ ) स्यात् नित्यानित्य प्रवक्तव्य ।
इनमें प्रथम के तीन भंग 'सकलादेशी' कहलाते हैं । उसमें भी आदि के दो वाक्य मुख्य हैं । उन्हीं (नित्य और अनित्य) दो धर्मों को ग्रहण करके भिन्न दृष्टि से शेष विकल्प कहे गए हैं। उन्हें विकलादेशी कहते हैं । इसी तरह अस्ति नास्ति, एकत्व अनेकत्व, भेद प्रभेद, इत्यादि युगपत् धर्मों से प्रत्येक वस्तु में सप्तभङ्गी घटायी जा सकती है। जैसे - आत्मा में घटती सप्तभङ्गी नीचे प्रमाणे है -
( १ )
( २ )
' श्रात्मा स्यान्नित्य एव' - आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है ।
' श्रात्मा स्यादनित्य एव - आत्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है ।
(३) 'आत्मा स्यान्नित्य एव स्यादनित्य एव' - आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है, किसी अपेक्षा से अनित्य ही है ।
(४) 'श्रात्मा स्यादवक्तव्य एव'- - श्रात्मा किसी अपेक्षा से प्रवक्तव्य ही है ।
(५) 'आत्मा स्यान्नित्य एव स्यादवक्तव्य एव - आत्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है, किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है ।
(६) 'आत्मा स्यादनित्य एव स्यादवक्तव्य एव' - श्रात्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है, और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है ।
( ७ ) श्रात्मा स्यान्नित्य एव स्यादनित्य एव स्यादवक्तव्य एव' - आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है, किसी अपेक्षा से अनित्य ही है, किसी अपेक्षा से प्रवक्तव्य ही है ।
इस तरह प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरुद्ध होते हुए भी भिन्न-भिन्न अपेक्षा से सिद्ध होते हुए एकत्व तथा अनेकत्व इत्यादि धर्मद्वय आश्रय करके विधि और निषेध रूप से सप्तभङ्गी होती है ।
प्रत्येक वस्तु में सामान्य और विशेष धर्म स्वीकार करना ही 'स्याद्वाद् दर्शन' है । इसी को कान्तवाद भी कहते हैं । इसी से एक वस्तु अनेकधर्मात्मक और अनेक व्यवहार विषयी मानी जाती है। जो यहाँ सप्तभंगी के सातों भङ्गों में अपेक्षा भेद से घटती है ।। ५-३१ ।।