Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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५॥३७
जैसे-द्विगणरुक्ष का द्विगुण स्निग्ध के साथ बन्ध होते हए कभी द्विगुण रुक्ष द्विगुण स्निग्ध को द्विगुण रुक्ष रूप में परिणमाते हैं। अर्थात् द्विगुण रुक्ष रूप में करते हैं तथा कभी द्विगुण स्निग्ध, द्विगुण रुक्ष को द्विगुण स्निग्ध रूप में परिणमाते हैं। अर्थात् - द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के अनुसार किसी समय स्निग्ध, रुक्षपने और रुक्ष स्निग्धपने में बदल जाता है। परन्तु अधिकांश स्थल में हीनांश अधिक अंश में सम्मिलित होता है। जैसे-पंचांश स्निग्धत्व तीन अंश स्निग्धत्व को अपने स्वरूप में परिणत करता है। इसी माफिक पाँच अंश स्निग्धत्व तीन रुक्ष को भी स्वरूप में बदल लेता है। अर्थात-रूक्षत्व स्निग्धत्व रूप में बदल जाता है; और जिस समय रूक्षत्व गुण की अधिकता होती है उस समय स्निग्धत्व रूक्षत्व स्वरूप बन जाता है। उसका तात्पर्य यह है कि हीन गुणपने में परिणत होता है।
पूर्व प्रकरण (अध्याय ५ सूत्र दो) में धर्मादि चार और जीव द्रव्य का कथन करके आए हैं । उनकी सिद्धि क्या केवल उद्देश मात्र (नामसंकीर्तन) से ही है ? नहीं, नहीं लक्षण से भी सिद्ध है। यही बात आगे के सूत्र में बता रहे हैं ।। ५-३६ ।।
* द्रव्यस्य लक्षरणम् *
卐 मूलसूत्रम्
गुरणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ५-३७॥
* सुबोधिका टीका * शक्तिविशेषाः हि गुणाः । “द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः" अनेन सूत्रेण वक्ष्यामः । भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः, तदुभयं यत्र विद्यते तद् द्रव्यम् । गुणपर्याया अस्य सन्ति अस्मिन् वा सन्तीति गुणपर्यायवत्, गुणपर्यायमपि भेदं प्रागमे व्यवहारनया पेक्षयैव वस्तुतस्तु पर्यायगुणौ एकमेव । द्रव्यपरिणति विशेषमेव गुणः पर्याय वा। [आवश्यकेऽपि गाथा ६४] "दो पज्जवे दुगुणिए लभति उ एगानो दव्वानो' तथा "तं तह जाणाति जिणो अपज्जवे जाणणा नत्थि" [प्रा. नि. गाथा १६४] एवञ्च दव्वपभवा य गुणा न गुणप्पभवाइं दव्वाइं" [प्रा. नि. गाथा १६३] ।। ५-३७ ॥
* सूत्रार्थ-गुण और पर्याय जिसमें हों उसको 'द्रव्य' समझना चाहिए । अर्थात्-जिसमें गुण और पर्याय हों वह 'द्रव्य' है ।। ५-३७ ॥
+ विवेचनामृत 5 । द्रव्य का उल्लेख पूर्व में कई सूत्रों द्वारा करके पाए हैं। अब इस सूत्र से उसका लक्षण कहते हैं