Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।३१
से किसी भी समय अन्य दूसरे का प्रतिपादन कैसे हो इसका अवबोध करना, इस सूत्र का
उद्देश्य है ।
आत्मा सत् है । इस प्रतीति या कथन से जिस सत् सत्यता का भास होता है वह समस्त प्रकार से घटित नहीं है, किन्तु वह निजस्वरूप से ही सत् है । यदि ऐसा नहीं हो तो श्रात्मा चेतनादि स्वरूप के समान घटादि पर रूप में भी सत्यता सिद्ध होनी चाहिए और घट में भी चैतन्य भाव होगा । इससे विशिष्ट स्वरूप सिद्ध होता नहीं। क्योंकि जो निजस्वरूप से सत् है वह पर रूप में नहीं ।
इस तरह आत्मादि प्रत्येक वस्तु में जो विरोधाभावी धर्म रहा हुआ है वह सापेक्ष है । इसी तरह वस्तु में नित्य एवं अनित्य धर्म भी रहा हुआ है। जो वस्तु सामान्य दृष्टि ( द्रव्य ) से नित्य है वही वस्तु विशेष दृष्टि (पर्याय ) से अनित्य सिद्ध होती है । तथा अन्य दूसरे एकत्व तथा अनेकत्वादि अनेक धर्मों का समन्वय जीव आत्मादि समस्त वस्तु- पदार्थों में अबाधित रूप से है । इसीलिए सर्व पदार्थ अनेक धर्मात्मक माने गए हैं ।
वस्तु में अनेक धर्म होते हैं। जिस समय में जिस धर्म की अपेक्षा होती है उसी समय में उस धर्म को आगे करके अपन वस्तु-पदार्थ को पहिचान सकते हैं । जैसे- एक व्यक्ति पिता भी है और पुत्र भी है । उस व्यक्ति में पितृत्व और पुत्रत्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म रहे हुए हैं । उसी में से कभी पितृत्व धर्म को आगे करके - पितृत्व धर्म की अपेक्षा से उसको पिता कहते हैं । जब कभी पुत्रत्व धर्म को आगे करके पुत्रत्व धर्म की अपेक्षा से उसको पुत्र कहते हैं । जब पितृत्व धर्म की अपेक्षा होती है, तब पुत्रत्व घर्म की अपेक्षा नहीं होती । जब पुत्रत्व धर्म की अपेक्षा होती है, तब पितृत्व धर्म की अपेक्षा नहीं होती । जब उस व्यक्ति की ओलखाण कराने में आती है, तब कितनेक लोग उसके पिता को प्रोलखते होने से यह अमुक व्यक्ति का ही पुत्र है, ऐसा कहकर के उसकी ओलखाण कराने में आती है । तथा कितनेक उसके पिता को प्रोलखते नहीं, किन्तु उसके पुत्र को लखते हैं । अतः उसको ये अमुक व्यक्ति के पिता हैं, ऐसा कहकर के उसकी प्रोलखाण कराते हैं । एक ही व्यक्ति में पितृत्व और पुत्रत्व ये दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध होते हुए भी रह सकते हैं । जब जिस धर्म की अपेक्षा होती है तब उस धर्म को आगे करने में आता है ।
उसी तरह प्रस्तुत में नित्यत्व-अनित्यत्वादि धर्मों को भी घटाया जा सकता है ।
अपेक्षा भेद से सिद्ध होने वाले अनेक धर्मों में से वस्तु का व्यवहार किसी एक धर्म द्वारा होता है । वह धर्म अप्रामाणिक या बाधित नहीं कहलाता, क्योंकि वस्तु पदार्थ के विद्यमान समस्त धर्म एक साथ विवक्षित नहीं होते हैं । अर्थात् उनका व्यवहार या कथन एक साथ नहीं होता । प्रयोजन के अनुसार उनकी विवक्षा होती है ।
जिस धर्म की विवक्षा की जाए वह मुख्य है और शेष धर्म गौणरूप होते हैं । जैसे- जीवआत्मा में अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों धर्म रहे हुए हैं । वह द्रव्यदृष्टि अपेक्षा से नित्य है। क्योंकि कर्म का कर्ता है, वही फल का भी भोक्ता है । कर्म तथा तत्जन्य फल का समन्वय नित्यत्व धर्म से ही होता है । उस समय पर्यायदृष्टि अनित्यत्व विवक्षित नहीं होने के कारण गौरूप होती है ।