Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
विवेचनामृत 5
ज्ञानदर्शनरूप उपयोग स्वभाव बाले जीवद्रव्य अनन्त होते हैं । जितने प्रदेश लोकाकाश और धर्म एवं अधर्म के हैं, उतने ही प्रदेश एक-एक जीवद्रव्य के भी हैं ।
विशेष - जीव अनन्त हैं । के जितने असंख्यात प्रदेश हैं, इतने समस्त जीवों के भी असंख्यात प्रदेश काय और अधर्मास्तिकाय के भी इतने ही प्रदेश असंख्यात होते हैं ।
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5 मूलसूत्रम्
प्रत्येक जीव के प्रदेश समान असंख्यात हैं । अर्थात् एक जीव ही प्रसंख्यात प्रदेश दूसरे जीव के हैं । इतना ही नहीं किन्तु होते हैं । किसी जीव के कम या अधिक भी नहीं । धर्मास्ति
सारांश यह है कि - जीव द्रव्य व्यक्तिरूप से अनन्त हैं और प्रत्येक जीव व्यक्तिगत एक अखण्ड वस्तु धर्मास्तिकाय के समान असंख्यात प्रदेश परिमाण वाला है ।। ५-८ ।।
* श्राकाशप्रदेशानां परिमाणः
श्राकाशस्यानन्ताः ॥ ५-६ ॥
* सुबोधिका टीका *
वर्त्तते ।
विशेषदृष्ट्या जीवाजीवद्रव्याणामा माधारभूतं लोकाकाशम संख्यातप्रदेशवर्त्ती शेषमलोकाकाशमनन्तापर्यवसानम् । यदनन्तादसंख्यातानां न्यूनत्वादनन्तमेव धर्माधर्मैकजीवद्रव्यलोकाकाशानां प्रदेशाः समानाः । लोकालोकाकाशस्यानन्ताप्रदेशाः ; लोकाकाशस्य तु धर्माधर्मैकजीवैः तुल्याः ।। ५-६ ।।
शेषः ।
* सूत्रार्थ - श्राकाश ( लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों को मिलाकर ) अनन्तप्रदेशी है ।। ५-६ ।।
5 विवेचनामृत 5
वास्तव में, जीव और अजीव का आधारभूत लोकाकाश श्रसंख्यातप्रदेशी होता है । क्योंकि अनन्त में से असंख्यात कम होने पर भी अनन्त ही शेष रहता है ।
सारांश यह है कि-आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं । यहाँ पर आकाश के अनन्तप्रदेशों का कथन लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों के सम्मिलित प्रदेशों की अपेक्षा है । प्रत्येक के प्रदेशों की विचारणा करने में आये तो लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं और अलोकाकाश के प्रदेश अनन्त हैं ।। ५-६ ।।