Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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२० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५१५ जैसे-* एक रूम-ओरड़ा के एक-एक प्रदेश में तेज के हजारों पुद्गल रहते हैं।
* बारह इंच लम्बी रुई की पूणी को संकेली लेने में आ जाय तो एक इंच से छोटीनन्ही हो जाती है।
* दुग्ध-दूध से पूर्ण भरे हुए प्याले में जगह नहीं होते हुए भी उसमें शक्कर डालने में आ जाय तो भी वह समा जाती है। आग, जैसे-अग्नि का जलाने का स्वभाव है और तृण-घास का जलने का स्वभाव है, वैसे पुद्गलों का अत्यन्त सूक्ष्म रूप में परिणमन कर एकादि प्रदेशों में रहने का स्वभाव है तथा आकाश का भी उसी माफिक अवगाह देने का स्वभाव है।
आधेयभूत धर्मादि चारों द्रव्य समस्त आकाशव्यापी नहीं हैं। वे आकाश के एक परिमित भाग में स्थित हैं। जितने विभाग में वे स्थित हैं उस आकाश विभाग का नाम लोक है ।
पांच अस्तिकाय रूप ही लोक है, इसके परे केवल आकाश अनन्त रूप है, उसको ही 'अलोकाकाश' कहते हैं।
जहाँ अन्य द्रव्यों का अभाव हो, वह अलोक कहलाता है और उक्त कारणों से आधाराधेय भाव भी होता है।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्ति काय ये दोनों अखण्ड द्रव्य हैं, इतना ही नहीं किन्तु सम्पूर्ण लोक में स्थित हैं। वास्तविक रूप से देखा जाय तो आकाशद्रव्य के दो विभागों की कल्पनाबुद्धि उन्हीं धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दो द्रव्यों से होती है तथा लोकालोक की मर्यादा का सम्बन्ध भी इन्हीं से प्रसिद्ध है ।। ५-१४ ।। ॐ मूलसूत्रम्
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ ५-१५ ॥
* सुबोधिका टीका * जीवानामवगाहो लोकाकाशप्रदेशानामसंख्येयभागादिषु भवति । प्रा सर्वलोकादिव। प्रतिजीवापेक्षण इदमपि। यथा अङ्गष्ठस्यासंख्येयभागप्रमाणं शरीरजघन्यावगाहना।
कृत्स्नेऽपि लोके समुद्घातापेक्षया व्याप्तिः । यत् केवलिनः भगवन्तः समुद्घातयन्ति तदा तेषामात्मप्रदेशाः क्रमेण दण्डकपाटप्रतरलोकपर्णेषु भवन्ति ॥ ५-१५ ।।
* सूत्रार्थ-लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकपर्यन्त जीवों का अवगाह हुमा करता है ।। ५-१५ ।।