Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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५० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ २८ जैनदर्शन वस्तु मात्र को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य मानता है, तथा पर्यायाथिक नय की अपेक्षा अनित्य मानता है। अतः जब वह किसी वस्तु को नित्य या अनित्य कहे तो वह वस्तु नित्य ही है, या अनित्य ही है ऐसा नहीं समझे। पूर्व में परमाणु को नित्य कहने में आया है, वह द्रव्याथिक नय की दृष्टि से, परमाणु पूर्व में नहीं ही था और नया ही द्रव्यरूप में उत्पन्न हुआ है, ऐसा नहीं। इस द्रव्यरूप में वह नित्य है। किन्तु अमुक पर्याय रूप में वह नया ही उत्पन्न होता है ।
जब परमाणु स्कन्ध में से निकल जाता है, तब उसके स्कन्धबद्ध अस्तित्वपर्याय का विनाश होता है। तथा स्वतन्त्र अस्तित्व रूप पर्याय उत्पन्न होती है। पर्यायाथिक नय से स्वतन्त्र अस्तित्व पर्यायरूप में परमाणु की उत्पत्ति होती है। कोई नया ही परमाणु उत्पन्न होता हो ऐसा नहीं। यहाँ पर भेद से परमाणु उत्पन्न होता है। उसका अर्थ इतना ही है कि परमाणु स्कन्ध में जो परस्पर बन्ध था वह छूटकर परमाणु स्वतन्त्र होता है।
परमाणु के स्वतन्त्र अस्तित्व रूप पर्याय की उत्पत्ति को उपचार से परमाणु की उत्पत्ति कहने में आती है। इस तरह द्रव्याथिक दृष्टि से वह (उत्पन्न न होने से) कारण रूप है, और पर्यायाथिक दृष्टि से (उत्पन्न होने से) कार्य रूप भी है ।। ५-२७ ।।
* स्कन्धः चक्षुग्राह्याग्राह्ययोः विषयः ॐ + मूलसूत्रम्
भेव-सङ्घाताभ्यां चाक्षुषाः ॥५-२८ ॥
* सुबोधिका टीका * चक्षुष इमे चाक्षुषाः । ये च चक्षुरिन्द्रियविषयाः ते चाक्षुषाः ।
भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषा उत्पद्यन्ते। अचाक्षुषाः तु यथोक्तात् सङ्घातात् भेदात् सङ्घातभेदाच्च ।
अत्र चक्षुष इमे चाक्षुषाः इति सर्वथा नैव नियमः ।
यदनन्तानन्तपरमाणुसंयोगविशेषैः बद्धा अचाक्षुषारपि स्कन्धाः भवन्ति । येषाञ्चोत्पत्ति भेदसङ्घाताभ्यां भवन्ति । अतः स्वतः सिद्धं यत् स्वतः परिणमनविशेषैः चाक्षुषस्वरूपपरिणमनकारकाः बादरस्कन्धाः भेदसङ्घातेनोत्पद्यन्ते ।। ५-२८ ।।
* सूत्रार्थ-चक्षुरिन्द्रिय के विषय हो सकने वाले स्कन्धों की उत्पत्ति भेद और संघात से होती है।
अर्थात्-भेद और संघात दोनों से चाक्षुष स्कन्ध बनते है ।। ५-२८ ॥