Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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५।२२ ]
पञ्चमोऽध्यायः
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* सूत्रार्थ-जीवों का उपकार परस्पर एक-दूसरे के लिए हित-अहित का उपदेश देने आदि द्वारा होता है। अर्थात्-परस्पर हिताहित के उपदेश द्वारा सहायक होना रूप जीवों का प्रयोजन है ॥ ५-२१ ।।
+ विवेचनामृत जीव-आत्मा का लक्षण "उपयोगो लक्षणम्" इस सूत्र में कह दिया है। प्रस्तुत सूत्र में जीवों के पारस्परिक उपकार का वर्णन है। एक जीव अन्य जीवों के लिए उपदेश द्वारा अथवा हिताहित द्वारा उपकार करता है। जैसे-जीव स्वामी-सेवक, गुरु-शिष्य, वैरभाव आदि द्वारा परस्पर एक-दूसरे के कार्य में निमित्त बनकर परस्पर उपकार करते हैं। गुरु हितोपदेश तथा सद्अनुष्ठान के आचरण द्वारा शिष्य पर उपकार करता है। शिष्य गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा गुरु पर उपकार करता है। स्वामी धनादिक द्वारा सेवक पर उपकार करता है। सेवक अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा स्वामी पर उपकार करता है। व्यक्ति शत्रुभाव से लड़कर भी परस्पर उपकार करते हैं। * प्रश्न-वैरभाव से तो एक-दूसरे का अपमान ही होता है, उसमें उपकार होता है,
ऐसा कैसे ? उत्तर-यहाँ उपकार का अर्थ अन्य का हित करना ऐसा नहीं है, किन्तु निमित्त अर्थ है ।
जीव एक-दूसरे के हित-अहित, सुख-दु:ख इत्यादि में निमित्त बनने से परस्पर उपकार करते हैं, ऐसा समझना ।। ५-२१ ।।
* कालस्योपकारः * 卐 मूलसूत्रम्वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥५-२२ ॥
* सुबोधिका टीका * सर्वे पदार्थाः स्व-स्वस्वभावानुसारं वर्तन्ते। सर्वभावानां वर्तना कालाश्रयावृत्तिः । वर्तना उत्पत्तिः। स्थितिरथगतिः। प्रथमसमयाश्रयेत्यर्थः। परिणामो द्विविधः अनादिरादिमांश्च । अत्र क्रियाशब्देन गतिर्गाह्या। सा त्रिविधा, प्राद्या प्रयोगगतिः, द्वितीया विस्रसा गतिः तृतीया च मिश्रिका। परत्वापरत्वेऽपि त्रिविधे प्रशंसाकृते, क्षेत्रकृते, कालकृते इति ।
तत्र च प्रशंसाकृते परोधर्मः, परं ज्ञानं, अपरोऽधर्मः प्रपरमज्ञानम् । क्षेत्रकृते एकदिक्कालावस्थितयोविप्रकृष्टः परो भवति, सन्निकृष्टोऽपरः । कामकृते द्विरष्टवर्षाद् वर्षशतिक: परोभवति । वर्षशतिकाद् द्विरष्टवर्षोऽपरो भवति ।