Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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५।२४ ]
मोऽध्यायः
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उत्तर - एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय प्रारणी सभी श्रोत्रेन्द्रिय (कान) रहित हैं । इसलिए ढोल की आवाज को नहीं सुन सकते हैं। परन्तु शब्द पुद्गल रूप हैं-ढोल द्वारा उत्पन्न होने वाली आवाज के पुद्गल सर्वत्र चारों तरफ फैल जाते हैं । वे फैले हुए शब्द पुद्गल उन जीव-जन्तुनों के शरीर पर प्रहार रूप असर करते हैं । यह प्रहार सहन नहीं होने के कारण वे जीव-जन्तु उड़ जाते हैं ।
जैसे शब्द रूप पुद्गलों के प्रहार प्रादि से प्रतिकूल अनुकूल असर भी होता है । इसी कारण अमुक-अमुक से शीघ्र-जल्दी और विशेष विकसित कर सकते हैं । सुनाने में आ जाय तो गायें अधिक विशेष दूध देती हैं तथा रोगियों के से दूर कर सकते हैं ।
असर होता है वैसे संगीत आदि द्वारा वनस्पति- वृक्षों आदि को संगीत के प्रयोग गौ-गायों का दूध दुहते समय जो संगीत रोगों को विशेष शब्दप्रयोग
इस हकीकत को आज वैज्ञानिकों ने प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिया है । संयोग - मिलन |
(२)
बन्ध - यानी परस्पर दो वस्तुओंों का प्रयोगबन्ध और विलसा बन्ध ।
बन्ध के दो प्रकार-भेद हैं ।
( अ ) जीव- श्रात्मा के प्रयत्न से होता हुआ बन्ध 'प्रयोगबन्ध' कहा जाता है । जीवमात्मा के साथ देह शरीर का, जीव- श्रात्मा के साथ कर्मों का, लाख और लकड़ेकाष्ठादि का बन्ध प्रयोगबन्ध है ।
( श्रा) जीव- श्रात्मा के प्रयत्न बिना होने वाला बन्ध विस्रसा बन्ध है ।
बिजली और मेघादिक का बन्ध विस्रसाबन्ध है ।
अमुक प्रकार के पुद्गलों के मिलन से बिजली तथा मेघ आदि उत्पन्न होते हैं । पुद्गलों का मिलन किसी जीव आत्मा के प्रयत्न से नहीं होता, किन्तु स्वाभाविकपने होता है । जीव- श्रात्मा के साथ कर्मों का बन्ध शास्त्रों में भिन्न-भिन्न दृष्टियों द्वारा अनेक प्रकार से बताने में आया है । उसमें फल की अपेक्षा कर्मबन्ध के चार प्रकार कहने में आये हैं- (१) स्पृष्ट, (२) बद्ध, (३) निघत्त और ( ४ ) निकाचित ।
(१) स्पृष्टबन्ध - परस्पर घड़ी हुई सुइयों के समान है । जैसे परस्पर सटा कर रखी हुई सुइयों को जुदा करनी हो तो छूने मात्र से ही जुदा कर सके, बिखेर भी सके; तैसे कर्म विशेष फल दिये बिना सामान्य से प्रदेशोदय से भोग कर जीव आत्मा से छूटे पड़ जाँय जुदे पड़ जाँय; ऐसा जो बन्ध वह 'स्पृष्ट बन्ध' कहा जाता है ।
(२) बद्ध बन्ध - यह धागे से बंधी हुई सुइयों के समान है । जैसे धागे से बँधी हुई सुइयों को जुदा करना हो तो डोरे / धागे को छोड़ने-जुदा करने की जरा मेहनत-यत्न करना पड़ता है; वैसे कर्म भी अल्प फल देकर ही जो छूटे-जुदे पड़ें, ऐसा बन्ध 'बद्धबन्ध' कहा जाता है ।
(३) निघत्तबन्ध - डोरे-धागे से बांधी हुई और उपयोग के बिना अधिक समय तक पड़ी रहने से काठ में आई हुई सुइयों के समान । जैसे- ऐसी सुइयों को अलग-अलग कर उपयोग में