Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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५।१७ ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ २३
उत्तर-जीवों का संकोच-विकास स्वतन्त्रपने नहीं होता, किन्तु सूक्ष्म शरीर के अर्थात् कार्मण शरीर के अनुसार होता है। जितना संकोच-विकास कार्मण शरीर का होता है उतना ही संकोच-विकास जीव का होता है। कार्मण शरीर अनन्तानन्त पुद्गल का समूहरूप है। उसके अवगाहन का क्षेत्र कम-से-कम अंगुल के असंख्यातवें भाग होने से जीव-प्रात्मा का भी कम-से-कम अवगाहना क्षेत्र अंगुल का असंख्यातवाँ भाग होता है। * प्रश्न–सिद्ध भगवन्तों (के जीवों) की अवगाहना पूर्व के शरीर प्रमाण नहीं होती
अपितु पूर्व के शरीर से दो तृतीयांश (3) भाग क्यों रहती है ? उत्तर-देह शरीर का तीसरा भाग खोखला पोलवाला होता है। योगनिरोध काल में यह भाग पुराइ जाने से जीव-आत्मा के तीसरे भाग का संकोच हो जाता है। अत: सिद्धावस्था में जीव-आत्मा की अवगाहना पूर्व के देह-शरीर से 3 भाग ही रहती है ॥ ५-१६ ॥
* धर्मास्तिकायस्य अधर्मास्तिकायस्य च लक्षणः *
卐 मूलसूत्रम्गति-स्थित्युपग्रही धर्माऽधर्मयोरुपकारः ॥५-१७ ॥
* सुबोधिका टीका * गतिमतां पदार्थानां गतेः स्थितिमतां पदार्थानां स्थितेः उपग्रहः धर्माधर्मयोरुपकारो यथासंख्यम् । उपग्रहो निमित्तमपेक्षाकारणम् हेतुरिति अनर्थानन्तरम् । उपकारः प्रयोजनं गुणोऽर्थः इत्यनर्थान्तरम् । जीव-पुद्गलौ गतिमन्तौ। यदा एतानि द्रव्याणि गतियुक्तानि गमनरूपक्रियायां परिणतानि भवन्ति, तदा तेषां बाह्यनिमित्तहेतु धर्मद्रव्यं भवति । यथा द्रव्यसंग्रहे
गइ परिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं, अच्छताणेव सो णेई ॥ १८ ॥ ठाणजुदाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी। छाया जह पहियाणं, गच्छन्ता व सो धरई ॥ १६ ॥ धर्माधर्मद्रव्याण्यतीन्द्रियाणि तथापि
तस्योपकार - प्रदर्शनेन तेषामस्तित्वं सिद्धम् ॥ ५-१७ ॥
* सूत्रार्थ-गतिमान पदार्थों की गति में और स्थितिमान पदार्थों की स्थिति में सहायता करना क्रम से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का उपकार 'गुण' है ॥ ५-१७ ॥