Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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२२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५११६ _माणिकावृतः माणिकां द्रोणावृतो द्रोणमाढकावृतः पाढकं प्रस्थावृतः प्रस्थं पाण्यावृतः पाणिम् यथा एवमेव प्रदेशानां संहार-विसर्गाभ्यां जीवः महान्तं अणु वा पञ्चविधं वपुस्कन्धं धर्माधर्माकाश-अणु वा पञ्चविधं वपुस्कन्धं धर्माधर्माकाश-पुद्गलजीवप्रदेशसमुदायं व्याप्नोति इति। धर्माधर्माकाशजीवानां परस्परेण पुद्गलेषु च वृत्तिनं अमूर्तत्वात् विरुद्ध्यते ।
दीपकस्य दृष्टान्तमत्रसंकोचविस्तारस्वभावप्रतिपादयितुमेव । नेतद् यत् यथा दीपः कृत्स्नं लोकं नैव व्याप्नोति तथैवात्मापि । वा दीपकोऽनित्यः तथैवात्माऽपि अनित्यम् । दृष्टान्तदाष्र्टान्ते सर्वथा समानतायाः मभावो वर्त्तते । अन्यथा दृष्टान्तदार्टान्तेन कोऽपि भेदः एवञ्च स्याद्वानुसारं दीपकादिनः अपि अनित्यैवेति कथितुमशक्याः । यथा सर्वथाकाशम् न नित्यम् । तथैव दीपकोऽपि नैवानित्यः । यत् श्रीजैनसिद्धान्तानुसारं वस्तुनः उत्पादादित्रयात्मका स्थितिः मान्या । अत्र सति प्रदेशसंहारविसर्गसम्भवेकस्मादसंख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति नैकप्रदेशादिष्विति ?
समाधानं क्रियते यत् सयोगत्वात् संसारिणाम, चरमशरीरत्रिभागहीनावगाहित्वाच्च सिद्धानाम् । यत् सिद्धाः कर्मनोकर्मविषये सर्वथा हीनाः वर्तन्ते ।
प्रतः तेषां विषये संकोचविस्तारस्याभावः ।। ५-१६ ।। * सूत्रार्थ-जीव के प्रदेश दीपक की तरह संकोच और विस्तार स्वभाव वाले
ॐ विवेचनामृत दीपक के समान जीवद्रव्य के प्रदेश संकोच और विस्तार स्वभाव वाले होते हैं। जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अवगाह के योग्य जितने बड़े शरीरानुसार क्षेत्र प्राप्त करता है उतने में ही वह अवगाहन करता है एवं जीव जब शरीर रहित हो जाता है तब उसी का प्रमाण अन्त्य शरीर से तीसरे भाग कम रहता है। किन्तु सशरीर अवस्था में असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में निमित्त के अनुसार व्याप्त रहता है ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि जैसे प्रदीप का संकोच और विकास होता है वैसे जीवप्रदेशों का भी संकोच-विकास होता है । * प्रश्न-पुद्गल और जीव इन दोनों को संकोच-विकास पामने का स्वभाव होते हुए भी
पुद्गलद्रव्य एकप्रदेश में रह सकता है तथा जीवद्रव्य एक प्रदेश में नहीं रह सकता है। जीवद्रव्य का कम-से-कम अवगाहना क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग अर्थात अंगूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशप्रदेश हैं। इसका क्या कारण है ?