Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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५।८ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ११ प्रदेशयोः प्रवगाहेते । अन्यच्च धर्माधर्माकाशजीवानां प्रदेशाः प्रापेक्षिकाऽपि सूक्ष्माः न स्थूलाः । अत्रतदपि सत्यं यत् प्रदेशस्वरूपज्ञानात् तेषामियत्ताज्ञानमपि ।। ५-७ ।। * सूत्रार्थ-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य असंख्यप्रदेशी हैं ॥ ५-७ ।।
ॐ विवेचनामृत धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय प्रत्येक के असंख्यात प्रदेश हैं। वस्तु-पदार्थ के साथ प्रतिबद्ध निविभाज्य सूक्ष्म अंश प्रदेश कहलाता है। ऐसे प्रदेश धर्मास्तिकाय के और अधर्मास्तिकाय के असंख्यात-असंख्यात होते हैं।
विशेष-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इन दोनों के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं। प्रदेश द्रव्य के सूक्ष्म अंश को कहते हैं। जिसके विभाग की कल्पना सर्वज्ञ-श्री केवली भगवन्त की बुद्धि से भी नहीं हो सकती है। ऐसे अविभाज्य सूक्ष्म अंश को निरंश अंश भी कहने में आता है।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों एक-एक व्यक्तिरूप हैं। इनके प्रदेश "अविभाज्य अंश" असंख्यात-असंख्यात हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उक्त दोनों द्रव्य एक ऐसे अखंड स्कन्ध रूप द्रव्य हैं कि जिसके असंख्यात अविभाज्य सूक्ष्म अंश केवल बुद्धि से कल्पित किये जाते हैं। वे वस्तु-पदार्थभूत स्कन्ध से पृथक् भिन्न नहीं होते हैं। परन्तु बुद्धि की अपेक्षा से उसका माप समझने का होता है ।। (५-७)
* प्रत्येकजीवस्यप्रदेशानां परिमारणः *
के मूलसूत्रम्
जीवस्य च ॥५-८॥
* सुबोधिका टीका * __ज्ञान-दर्शनरूपोपयोगस्वभावाः जीवद्रव्याः अनन्ताः, एकजीवस्य चासङ्घय याः प्रदेशाः भवन्ति । धर्माधर्मद्रव्यप्रदेशाः लोकेषु सततविस्तारयुक्ताः भवन्ति । यादृशाः तादृशाः एव, न घटन्ते न च वर्धन्ते । किन्तु जीवस्य प्रदेशाः संकुचनविस्तरणयुक्ताः । जीवस्य शरीरप्रामाण्यात् । यथा गजे जीवः वर्तते तदा तस्य समग्रप्रदेशाः गजहुत्याः, किन्तु सैव जीवः गजात् पिपीलिकायां प्रविशति उत्पद्यते वा तर्हि तस्याकारप्रमाणाः तयुक्ताः ।। ५-८ ।।
* सूत्रार्थ-प्रत्येक जीव भी असंख्यातप्रदेशी है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश संख्या में समान हैं ।। ५-८ ॥ ..