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श्रमण, वर्ष ५७, अंक १॥ जनवरी-मार्च २००६
कर्पूरमञ्जरी में भारतीय समाज
डॉ० हरिशंकर पाण्डेय*
कर्पूरमञ्जरी महाकवि राजशेखर की महत्त्वपूर्ण रचना है। काव्यभाषा के रमणीय परिधान में जिस तरह लोक-समाज का लोकभाषा (प्राकृत) में चित्रण इस सट्टक ग्रंथ में मिलता है, वैसा अन्यत्र अप्राप्यप्राय है। यह ग्रंथ जीवन की सरसता और माधुर्य का, दाम्पत्य की मधुरिमा एवं सुभगता का, अभिनव प्रेम की अनिर्वचनीयता का ऐसा लावण्यमय चित्रण प्रस्तुत करता है कि भग्नावरणचिद्विशिष्ट सामाजिक का चित्त इसमें रमण किए बिना नहीं मानता है। इस सट्टक में रूप और कमनीयता की रमणीय श्रोतास्विनी 'भदं भोद'१ से प्रारम्भ होकर अन्त तक उपचित होती हुई साहित्य के विशिष्ट रूप परम आनंद, परम-मोद रूप महासागर में विलीन हो जाती है, जहां न तो दरिद्रता का दुःख है, न रिक्तता का विषाद। वहां पर केवल भगवती विलासवती महालक्ष्मी के कटाक्ष से अमृतवर्षण ही शेष रहता है -
रित्तत्तणदावग्गी विरमऊ विमलकडम्खवरिसेणारे
कर्पूरमञ्जरी का समाज आनन्द से परिपूरित समाज है। विलास एवं वैभव के साथ आह्लाद एवं रमणीयता का सुभग रूप विद्यमान है तो दैहिक सुन्दरता के साथ चैतसिक अनाविलता का सहज मिश्रण भी उपलब्ध है। निजरमणीयता, कोमलता और ईश्वरप्रदत्त चंगत्त्रण से सामाजिक जीवन ओतप्रोत है। वहां बाल्यसुलभ सहजता के साथ नवयौवनसम्पन्ना मुग्धा की रोमांचकता भी लसित है। श्रृंगार के साथ हास्य का वातावरण सोने में सुंगधी का काम करता है। कहीं-कहीं भक्ति का उद्रेक सामाजिक परिस्थितियों को और चंग बना देता है। 'समाज' शब्द का विमर्श ___ सम् उपसर्ग पूर्वक 'भ्वादिगणीय अजगतिक्षेपणयोः' धातु से 'अकर्तरिच कारके संज्ञायाम् सूत्र से घञ् प्रत्यय करने पर समाज शब्द बनता है। अमरकोशकार ने मनुष्यों के समूह को समाज कहा है - पशूनां समजः अन्येषां समाजः । आचार्य * अध्यक्ष एवं उपाचार्य, प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
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