________________
महावीर कालीन मत-मतान्तर : पुनर्निरीक्षण : ७७ (नंगे रहने वाले, हाथ का चुल्लू बनाकर भिक्षा लेने वाले), वणिमगो (अधिक विनयी बन भिक्षा माँगने वाले, जो अपने आपको शाक्य का शिष्य बताते हैं), वारिभद्रक (पानी और शैवाल (काई) पर निर्भर रहने वाले, जो सारे समय नहाने
और धोने में लगे रहते हैं), वारिखल (अपने पात्र को मिट्टी से बारह बार धोने वाले)६४ आदि अन्य साधुओं के वर्ग का विवरण प्राप्त होता है। जैन साहित्य में इन तीर्थिकों के लिए 'पासंड' शब्द का भी प्रयोग किया गया। अनुयोगद्वार सूत्र में जिनेश्वर की आज्ञा न मानने वाले, आवश्यक पदों को न समझने वाले को कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक की सूची में रखा गया और उन पाषण्डों को कतीर्थक कहा गया। जैसे चरग (चरग-समुदाय रूप में एकत्रित हो भिक्षा माँगने वाले), चीरिग (चीरिक-चिथड़ों को पहनने वाले), चम्मखंडिय (चर्मखंडिक- चमड़े के वस्त्र पहनने वाले), भिच्छंहग (भिक्षोण्डक-भिक्षा से प्राप्त अन्न से उदरपर्ति करने वाले), पंडुरंग (पाण्डुरंग, शरीर पर भस्म का लेप लगाने वाले), गौतम (गौतमबैल को कोड़ियाँ पहना कर भिक्षा माँगने वाले), गोव्वतिय (ग्रोव्रतिक-गोचर्या का अनुकरण करने वाले), गिहिधम्म (गहिधर्मा- गृहस्थ धर्म को श्रेयस्कर मानने वाले), धम्मचिंतग (धर्मचिंतक-धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवहार करने वाले),अविरुद्ध, विरुद्ध, कवड- सावग६५ (जिनका उल्लेख अन्यत्र भी हआ है)। अनुयोगद्वार सूत्र में ही आगे प्रश्न किया गया, कि 'से किं तं पासंडनामे'? अर्थात् पाषण्डनाम का क्या स्वरूप है? और उत्तर में पाषण्ड नाम के स्वरूप में श्रमण, पाण्डुरंग, भिक्षु, कापालिक, तापस और परिव्राजक के स्वरूप६ का उल्लेख किया गया। बौद्ध साहित्य में उस समय 'जटिल' ब्राह्मण तपस्वियों का उल्लेख भी कई स्थानों में मिलता है, किन्तु जैन साहित्य में इसका सन्दर्भ (या नाम) नहीं प्राप्त होता है। __इतने विस्तार से भिन्न-भिन्न प्रकार के धार्मिक व दार्शनिक विभाजनों के बाद भी जैन साहित्य बारबार श्रमण और ब्राह्मण (समण-माहण) का उल्लेख करता है। इन्हें कई बार गृहस्थों की भाँति चित्त, अचित्त, काम, भोगों में लिप्त भी बताया गया।६७ चार प्रकार के ब्रह्मण श्रमणों की कथा मझिमनिकाय के निवापसुत्त६८ में भी प्राप्त होती है। इनके अतिरिक्त मुक्त, सिद्ध, अनगार श्रमण अथवा निग्रंथ श्रमणों का विवरण तो जैन साहित्य के विवरणों का मुख्य केन्द्र ही है।
सभी वर्गों का उल्लेख करते हुए १५ संज्ञा सूत्रों६९ के द्वारा१. लोक और अलोक के सन्दर्भ में सर्वशून्यतावादियों का खण्डन २. जीव और अजीव के सन्दर्भ में पंचमहाभूतवादियों का खण्डन ३. धर्म और अधर्म के सन्दर्भ में स्वभाववादियों का खण्डन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org