________________
८० :
श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
आवश्यकता के लिए परिव्राजक अथवा तापस बन गये, और इसमें उसकी भौगोलिक स्थिति ने भी मदद की। जैसे जल में रहने वाले ही कई प्रकार के तापस धर्म तो अपना लिये, पर अपनी जन जातीय परम्पराएँ नहीं छोड़ पाए, जैसे हस्तितापस एवं मिगलुद्धगा आदि। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हुए लोगों को यह परिव्राजक अपने उपदेशों से आसानी से लुभा लेते थे। मुनि, यति, परिव्राजक, तापस, श्रमण, ब्राह्मण सभी परम्पराएँ वैदिक युग में भी विद्यमान थीं, बदलते परिवेश का इन्हें लाभ मिला। संख्या अधिक से अधिक बता कर जैन साहित्य ने सभी मिथ्यावादियों पर जैन निग्रंथवाद की स्थापना कर अपनी श्रेष्ठता घोषित की। दूसरी ओर कुछ नामों की व्याख्या शोध का विषय हो सकती है। उदाहरण के लिए हस्तितापस। हस्तितापस वह भिक्षु वर्ग प्रतीत होता है, जिसके पास संपत्ति रूप में (दान में ही प्राप्त) हाथी अथवा हाथियों का समूह रहा होगा, और जो श्रेष्ठ, गण, राजकीय प्रश्रय में रहने वाले बौद्ध और जैन भिक्षुओं के लिए प्रतिस्पर्धा का वर्ग रहा होगा। पुनश्चः
महावीर कालीन मत-मतान्तरों का विवरण यह प्रश्न उत्पन्न करता है कि क्या उपयोग में लाए गए साक्ष्य तत्कालीन हैं? जिस प्रकार वैदिक साहित्य का संकलन बहुत बाद में हुआ माना जाता है, उसी प्रकार जो उपलब्ध जैन साहित्य है, उसका संकलन 'वल्लभी वाचना' के परिणाम स्वरूप हुआ है। परम्परानुसार महावीर निर्वाण के लगभग ९८० वर्ष बाद वल्लभी में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा जो मुनि सम्मेलन किया गया, उसमें लगभग ४५-४६ ग्रंथों का संकलन किया गया, जो आज भी प्रचलित हैं। जो ग्रंथ इस लेख में साक्ष्य रूप में उपयोग में लिए गए, वे अर्धमागधी भाषा के ग्रंथ हैं।भाषाशास्त्रियों के मतानुसार यह ग्रंथ द्वितीय शताब्दी ईस्वी के बाद की रचनाएँ हैं। इनमें भी सूत्रकृतांग भाषा की दृष्टि से प्राचीनतम प्रतीत होता है, और अनुयोगद्वार सूत्र काफी परवर्ती। यदि कालक्रम की दृष्टि से देखा जाए तो यह विवरण लगभग द्वितीय शताब्दी ईस्वी से लेकर सातवी-आठवीं शताब्दी ईस्वी के सिद्ध हो सकेंगे। किन्तु विशेष बात यह है कि अधिकांश विवरण गौतम गणधर और महावीर स्वामी के बीच हुए वार्तालाप और तत्कालीन तीर्थिकों का उल्लेख करते हैं। अन्य जो तत्कालीन सामग्री राजनैतिक जीवन की प्राप्त होती है, उसे इतिहासकार छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व का ठहराते हैं, तो इस दृष्टि से अन्य विवरणों को भी छठी शताब्दी ईस्वी का माना जा सकता है। अन्य साक्ष्य, जैसे कि बौद्ध साहित्य आदि भी इन विवरणों का स्थान-स्थान पर समर्थन करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org