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११० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
- भारतीय दर्शनों में नास्तिक दर्शन का प्रतिनिधि जैन दर्शन एक व्यावहारिक जीवन-दृष्टि का प्रणेता है। इस दर्शन में भी 'दया-मृत्यु' की तरह 'संथारा-प्रथा' का प्रतिपादन किया गया है। 'संथारा-प्रथा' के अन्तर्गत जैनधर्मावलम्बी साधु एवं श्रावक जीवन के सभी उद्देश्य पूरे करने पर सार्वजनिक रूप से तथा धार्मिक विधि-विधान से आत्मोत्सर्ग हेतु स्वैच्छिक मृत्यु का आश्रय लेते हैं। जिसमें जैन मनि उन्हें 'अन्न-जल' त्यागकर भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की दिव्य यात्रा करने की अनुमति देते हैं। ज्ञातव्य है कि जैनधर्मावलम्बी 'संथारा-प्रथा' का अनुसरण करते ही समाज के आदरणीय हो जाते हैं। जैन धर्म में वृद्धों, गृहस्थों, मुनियों इत्यादि के द्वारा 'संथारा-प्रथा' को आत्मोत्सर्ग का साधन और साध्य मानने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। जैन ग्रन्थों में वर्णन है कि महावीर ने 'संथाराप्रथा' को आत्मसात किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जीवन के अन्तिम समय में 'अन्नजल' त्यागकर भारतीय राज्य कर्नाटक में भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की दिव्य यात्रा का अनुसरण किया था। स्पष्ट है कि 'संथारा-प्रथा' में जैनान्यायी भौतिकता को त्यागकर आत्मोत्सर्ग के लिए दिव्य यात्रा करते हैं, जैसे- २००२ में भारत के विभिन्न राज्यों में ६० जैनानुयायियों में संथारा-प्रथा' को आत्मसात किया।
निष्कर्षत: ज्ञात होता है कि 'दया-मृत्यु' एवं जैनदर्शन के 'संथारा-प्रथा' दोनों अवधारणाओं के साधन एवं साध्य में भिन्नता है। 'दया-मृत्यु' चिकित्सकीय साधन द्वारा शारीरिक पीड़ा से मक्ति है; जो स्वेच्छा या परेच्छा से सार्वजनिक रूप से संकल्प शक्ति के आधार पर क्रियान्वित की जाती है। जबकी 'संथारा-प्रथा' भौतिकता को त्याग कर आत्मोत्सर्ग हेतु दिव्य यात्रा के लिए प्रस्थान है। लेकिन दोनों अवधारणाएं प्रभावित व्यक्तियों के संकल्प-शक्ति पर आधारित हैं। संकल्पशक्ति के निर्णय वैज्ञानिक आधार पर निर्भर होते हैं। क्योंकि संकल्प-शक्ति (Will-Power) नैतिकता की आधारभूत मान्यता है जिसमें निर्णयकर्ता में कर्म करने की क्षमता, ज्ञान और उद्देश्य तथा विकल्पों के चयन की स्वतन्त्रता इत्यादि पहलू अन्तर्निहित रहते हैं। जिसके फलस्वरूप व्यक्ति ‘दया-मृत्यु' (अनिवार्य हिंसा) को आन्तरिक प्रेरणा से निर्भीकता पूर्वक स्वजन के प्रति निस्सीम प्रेम एवं अगाध दया से ओत-प्रोत होकर क्रियान्वित करता है। परिणामत: उसके निर्णय प्रभावित व्यक्ति एवं उसके आत्मीयजनों के साथ-साथ समाज के लिए भी कल्याणकारी होते हैं। इसको आत्मसात करने वाला व्यक्ति 'मानव जीवन' को क्रियाशील, आस्थामूलक एवं आनन्दमय मानता है और सोचता है
जहाँ में जब तक रहो रहो इंसा की शान से। वरना कफन उठाओ और चलो इस जहाँन से। For Private & Personal Use Only
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