Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 125
________________ ११८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ जैन ग्रन्थों में श्रमण-श्रमणियों से सम्बन्धित नियमों का अनुशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन आगम ग्रन्थों यथा-आचारांग, स्थानांग आदि की अपेक्षा परवर्ती ग्रन्थों यथा गच्छाचार, बृहत्कल्पभाष्य आदि के रचना काल के समय में भिक्षुणियों के ऊपर भिक्षुओं का और भी अधिक कठोर नियन्त्रण हो गया। स्थानांग में कुछ विशेष परिस्थितियों में श्रमण-श्रमणियों पर परस्पर एक दूसरे की सहायता करने, सेवा करने तथा साथ रहने का भी विधान था, परन्तु गच्छाचार तथा बृहत्कल्पभाष्य के रचनाकाल तक इन सब पर कठोर नियन्त्रण लगा दिया गया। यहां हम कह सकते हैं कि आचारांग तथा स्थानांग के रचनाकाल के समय और बाद के परवर्ती ग्रन्थों यथा गच्छाचार के समय तक नियमों में दृढ़ता दृष्टिगोचर होती है। जैन श्रमण संघ में पुरुष और स्त्री की समानता पर बल दिया गया, परन्तु इनकी संगठनात्मक व्यवस्था पर तत्कालीन सामाजिक मूल्यों का गहरा प्रभाव पड़ा है। श्रमण-श्रमणियों के मध्य नियमों की समानताओं एवं सैद्धान्तिक उच्चादर्शों के बावजूद भी यह स्पष्ट है कि भिक्षु की तुलना में भिक्षुणी की स्थिति निम्न थी। बौद्ध दर्शन से यदि तुलना करें तो बुद्ध ने स्वयं संघ में स्त्री के प्रवेश के सम्बन्ध में काफी अनुनय-विनय के पश्चात् आज्ञा दी थी, अत: बौद्ध संघ में स्त्री के लिए कुछ विशिष्ट नियम बनाए गये। यद्यपि श्रमणी संघ की व्यवस्था जैन धर्म में ही प्रथमत: की गयी थी, फिर भी जैन धर्म में क्रमश: “पुरुषज्येष्ठ धर्म'' एवं “अष्टगुरु धर्म" के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है और श्रमणी को श्रमण के आश्रय में रहने के आदेश के विधान का वर्णन प्राप्त होता है। श्रमण ही श्रमणी को दीक्षित करता है एवं अपराधों के लिए प्रायश्चित्त एवं दण्ड देता है। श्रमणी को ये अधिकार प्राप्त नहीं थे। यद्यपि कुछ जैन विद्वान एवं धर्मानन्द कोशाम्बी प्रभृत बौद्ध विद्वानों की मान्यता है कि ये नियम भिक्षुणी संघ पर बाद में लादे गये। जैन श्रमण-संघ में न केवल संघ की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों को दृढ़ता से स्थापित किया अपितु उनका उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था भी की गयी। सामान्यत: जैन आगमों में नियम भंग और अपराध के लिए प्रायश्चित्त का ही विधान है,क्योंकि दण्ड का प्रयोग हिंसा का ही एक रूप है। अत: जैन श्रमण संघ में प्रायश्चित्त की ही व्यवस्था की गयी, किन्तु जब साधक अन्त:प्रेरित होकर स्वयं प्रायश्चित्त की याचना नहीं करता है तो संघ की व्यवस्था के लिए उसे दण्ड देने का विधान किया गया, ताकि अन्य भिक्षु उससे सीख ले सकें। यद्यपि इस आत्मग्लानि या अपराध बोध का यह तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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