Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 126
________________ जैन श्रमण संघ में विधि शास्त्र का विकास : ११९ जीवन भर इस अपराध बोध की भावना से ग्रस्त रहे अपितु वह अपराध और दोष को दोष के रूप में देखे और समझे कि अपराध एक संयोगिक घटना है और उसका परिशोधन कर आध्यात्मिक विकास के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है। जैन धर्म में श्रमण-संघ की स्थापना उन नारियों के लिए वरदान सिद्ध हुई जो समाज से किसी प्रकार सन्त्रस्त थीं । ऐसी सभी नारियों को जिन्हें समाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी और जिन्हें सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का कोई विकल्प नहीं था, जैन धर्म के श्रमण संघ ने उन्हें आश्रय एवं भयमुक्त वातावरण प्रदान किया। श्रमण-संघ ने विद्याध्ययन के लिए स्वस्थ वातावरण प्रदान किया। ऐसे कई भिक्षु-भिक्षुणियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं, जो आगमों एवं पिटकों में निष्णात थे। इस प्रकार इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भ में विधि शास्त्र के नियमों में इतनी कठोरता नहीं थी, लेकिन जब मुनष्य में छल और प्रवंचना की प्रवृत्ति अधिक विकसित हो गई तो संघ की व्यवस्था के लिए कठोर नियमों का विधान करना पड़ा। मनुष्य भोगों में आसक्ति रखता है और यदि उस ओर जाने के लिए उसे थोड़ा सा भी मार्ग मिलता है तो वह भोगों में गृद्ध हो आध्यात्मिक साधना तज देता है। बुद्ध ने श्रमणों को कठोर नियम नहीं दिये किन्तु इसका परिणाम बौद्ध संघ पर वामाचार के नाम से अनैतिक सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ। मन की तृप्ति जब छल, कपट, ईर्ष्या और मोह-माया, मिथ्यात्व आदि से युक्त हो जाती है तो कठोर नैतिक नियम आवश्यक हो जाता है। ... इस प्रकार यह स्पष्ट है कि श्रमण-संघ में विधिशास्त्र की उपयोगिता कई दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण है। यह एक विशिष्ट प्रकार का आश्रयस्थल तथा सुधारगृह है जहाँ भयमुक्त अनुकूल वातावरण मिलने पर नर-नारियों को अपने ज्ञान एवं बुद्धि के चतुर्दिक विकास का सुनहरा अवसर उपलब्ध हुआ। इस प्रकार श्रमणश्रमणियाँ विधिशास्त्रीय नियमों का परिपालन करते हुए लोक-कल्याण हितार्थ समाज को शुभ प्रेरणा देते हैं और स्वयं भी नैतिक चरम (मोक्षावस्था) की स्थिति पर पहुँचते हैं। इस प्रकार तत्कालीन समाज के लिए श्रमण-संघ का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। निस्सन्देह, जैन श्रमण-संघ की स्थापना, एक ऐतिहासिकता थी। जैन साहित्य के गहन अध्ययन से पता चलता है कि श्रमणों के लिए बनाए गए विधि/नियम जैन धर्म के विकास में सहायक रहे हैं। जैन धर्म में आचार सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों की रचना की गयी है। जैन ग्रन्थों, जैसे - आचारांग, स्थानांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्पसूत्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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