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साहित्य सत्कार : १६१
११. श्री नवपद मंजूषा - संग्राहक - श्री विजय अमितयश सूरि, प्रकाशक,
सोहनलालजी, आनन्दकुमार जी तालेडा, बैंगलोर, वि०सं० २०६१,
प्रथम आवृत्ति, मूल्य रु० ९०/१२. कवि कल्पद्रुम - हर्षकुलगणि विरचित, प्रकाशक - आचार्य श्री सुरेन्द्र
सूरीश्वरजी, जैन तत्त्वज्ञानशाला, अहमदाबाद - १, द्वितीय आवृत्ति सं०
२०६२। १३. हेमविभ्रमः, संशोधक - पं० हरगोविन्द दास बेचरदासजी, प्रकाशक -
श्री सुरेन्द्र सूरीश्वरजी, जैन तत्त्वज्ञानशाला, अहमदाबाद - १, द्वितीय आवृत्ति सं० २०६२।
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व्यष्टि को समष्टि की गोद में ही चैन
एक बूंद समुद्र के अथाह जल में घुलने लगी तो उसने सुमद्र से कहा “मैं अपनी सत्ता खोना नहीं चाहती! समुद्र ने उसे समझाया" तुम्हारी जैसी असंख्य बूंदों का समन्वय मात्र ही तो मैं हूँ। तुम अपने भाई-बहनों के साथ ही तो घुल रही हो। उसमें तुम्हारी सत्ता कम कहां हो रही है, वह तो और बढ़ जा रही है।
बूंद को संतोष न हुआ, वह अपनी पृथक सत्ता बनाये रखने का ही आग्रह करती रही। समुद्र ने सूर्यकिरणों के सहारे उसे भाप बनाकर बादलों में पहंचा दिया और बरसकर फिर वह बूंद बन गई। बहती हुई फिर समुद्र के दरवाजे पहुंची तो समुद्र ने हंसते हुए कहा - बच्ची! पृथक सत्ता बनाये रहकर भी तुम अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की रक्षा कहां कर सकी? अपने उद्गम को समझो, तुम समष्टि से उत्पन्न हुई थी और उसी की गोद में ही तुम्हें चैन मिलेगा।
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