Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 165
________________ साहित्य सत्कार : १५९ आत्मख्याति टीका - समयसार पर आचार्य अमृतचन्द की टीका आत्मख्याति नाम से प्रसिद्ध है। इस टीका में उन्होंने जैन दर्शन के अनेक गूढ़ विषयों को अपनी सरल गद्य शैली में व्यक्त किया है। ऐसा नहीं है कि इन विषयों को अभी तक अनदेखा किया गया हो किन्तु आचार्य अमृतचन्द ने न केवल विषयों को अत्यन्त सरल ढंग से विवेचित किया अपितु जहां कहीं भी उन्होंने संस्कृत भाषा का प्रयोग किया, उसका स्तर देखते बनता है। इस टीका में विवेचित पद्यों की संख्या २७८ है एवं इस ग्रन्थ में ४१५ गाथाओं पर ही टीका लिखी गयी है। जबकि गाथाओं की कुल संख्या ७११ है। संभवत: तब इतनी ही गाथाएं उपलब्ध रही होंगी। आचार्य जयसेन द्वारा लिखी गयी समयसार (प्राभृत) पर दूसरी टीका तात्पर्य वृत्ति है। यह टीका भी अपने आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि समयसार पर इसके पहले जो भी टीका लिखी गयी उसकी भाषा दुर्बोध व कठिन होने के कारण सरलता से ज्ञान सुलभ नहीं थी। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य जयसेन ने इसमें न केवल जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों की विवेचना की अपितु उन्होंने इस टीका में गाथा से सम्बन्धित पदों का शब्दार्थ स्पष्ट किया तत्पश्चात् मुख्य विषय की विशेष चर्चा की। आचार्य जयसेन ने भी केवल अपने समय में उपलब्ध ४३९ गाथाओं पर ही टीका लिखीं शेष गाथाओं का लोप है। प्रस्तुत ग्रन्थ की एक अन्य विशेषता स्वयं पं० जी द्वारा आत्मख्याति टीका पर लिखी गयी उपटीका तत्त्वप्रबोधिनी है जो संस्कृत भाषा में है। इसमें आत्मख्याति के पदों की विवेचना की गयी है। पं० जी ने अपनी टीका में कुछ दुर्बोध ग्रन्थियों द्वयअर्थी आदि विषयों का विवरण प्रमेयकमलमार्तण्ड, गोम्मट्टसार आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों का उद्धरण देते हुए स्पष्ट किया है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रन्थ निश्चित ही पाठकों के लिये उपादेय सिद्ध होगी। डॉ० शारदा सिंह (साभार प्राप्ति ) भैया भगवती दास और उनका साहित्य, डॉ० उषा जैन, प्रकाशक - अखिल भारतीय साहित्य कला मंच, मुरादाबाद - २००६, प्रथम आवृत्ति मूल्य - २५०/२. श्रीवर्द्धमानसरि कृत - आचार दिनकर, प्रथम खण्ड - जैन गृहस्थ की षोडश संस्कारविधि, अनुवादक - साध्वी श्री मोक्षरत्ना श्री जी, सम्पा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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