Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 164
________________ १५८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ प्रकाशित किया गया है। जैन दर्शन में मोक्ष प्राप्ति के लिये त्रिरत्न के अतिरिक्त भक्ति को भी मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया है। इसी कारण भक्ति से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना भी की गयी है किन्तु ज्यादातर ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद न होने के कारण उनका सही लाभ नहीं उठाया जा सका है। स्पष्ट है कि संसार-सागर से तरने के लिये भक्ति की अलग ही महत्ता है। श्रमण की दिनचर्या भक्ति से ही प्रारम्भ होकर भक्ति पर ही खत्म होती है अत: भक्ति पाठों का श्रवण-मनन उनकी दिनचर्या का मुख्य भाग है। जो श्रावक या उपासक भक्ति पाठों का सही अर्थ नहीं समझ कर केवल उन्हें याद भर कर लेते हैं उनके लिये यह पुस्तक निश्चित ही उपयोगी सिद्ध होगी। कवि विद्यासागर ने अनेक पद्यानुवाद के साथ-साथ भक्ति ग्रन्थों का भी अनुवाद किया है। इनकी भाषा के कई शब्द व शब्दार्थ इनके अपने जीवन से स्वत: ही प्रस्तुत हुए हैं अत: शब्दार्थ में नवीनता दिखायी देती है जो पाठकों को सहज ही मोह लेगी। इस सराहनीय कार्य के लिये आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में सादर नमन। प्रस्तुत पुस्तक की साजसज्जा आकर्षक व मुद्रण सुस्पष्ट है। डॉ० शारदा सिंह ३. समयसार (समय प्राभृत) - रचयिता - आचार्य श्री कुन्दकुन्द, हिन्दी टीकाकार - पं० मोतीलाल कोठारी, प्रकाशक - अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान, बीना (सागर) मध्य प्रदेश, पृष्ठ - ७१३। प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द विरचित अध्यात्मरस से परिपूर्ण अनुपम ग्रन्थ है। समयसार ग्रन्थ पर कई आचार्यों की अलग-अलग टीकाएं ही उपलब्ध थीं किन्तु इस ग्रन्थ में समयसार की मूल गाथाओं पर आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका, आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका एक साथ उपलब्ध है। आत्मख्याति टीका, पर एक उपटीका पं० मोतीचन्द कोठारी द्वारा लिखी गयी तत्त्वप्रबोधनी टीका भी है। इसमें पं० जी ने आत्मख्याति टीका की मर्मस्पर्शी व गहन विवेचना की है। इस ग्रन्थ में जैन दर्शन के प्रतिपाद्य मुख्य सिद्धान्तों यथा - जीव, अजीव, निश्चयनय, व्यवहारनय, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व, ज्ञान, आत्मा, कर्म आदि विषयों की व्याख्या अत्यन्त सरल ढंग से गद्य शैली में की गयी है जिससे क्लिष्ट भाषा भी सरलतम जान पड़ती है। कहीं-कहीं भाषा में काव्यात्मक भाव देने के लिये पद्य शैली का प्रयोग भी किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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