Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 160
________________ १५४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ दार्शनिक अनुसंधान परिषद द्वारा एक योग कार्यशाला- “दी डायनिमिक योगा - ए सिन्थेटिक एप्रोच' दिनांक २२.०३.०६ से ३१.०३.०६ तक आयोजित की गयी। इसमें डॉ० सुधा जैन ने दिनांक २७.०३.०६ से ३१.०३.०६ तक जैन साधना पद्धति के प्रेक्षाध्यान पर सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया। प्रशिक्षण के दौरान योग कार्यशाला में भाग लेने वाले छात्र-छात्राओं एवं अन्य जिज्ञासुओं को उन्होंने प्रेक्षाध्यान का इतिहास उसकी साधना पद्धति एवं प्रयोगों की सैद्धान्तिक जानकारी दी तथा कायोत्सर्ग, श्वासप्रेक्षा, प्राणायाम आदि के प्रयोग करवाये। दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर सचिन्द्र कुमार सिंह के द्वारा आयोजित यह कार्यशाला विभिन्न साधना पद्धतियों के प्रशिक्षकों द्वारा प्रशिक्षण देने के पश्चात् सफल पूर्वक सम्पन्न हुई। भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय संस्कृति संस्थान के मासिक अध्ययन संगोष्ठी में 'पर्यावरण संरक्षण एवं जैन दृष्टि' विषय पर शोधपत्र दिल्ली, भारतीय संस्कृति के शोध एवं अध्ययन हेतु समर्पित भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय संस्कृति संस्थान के मासिक अध्ययन संगोष्ठी की नवीं कड़ी में ११, फरवरी २००६ को आयोजित संगोष्ठी में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर तथा उच्च अध्ययन के क्षेत्र में समर्पित अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान प्रो० नलिन शास्त्री ने 'पर्यावरण संरक्षण एवं जैन दृष्टि' विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। प्रो० शास्त्री ने कहा कि सच्चे अर्थों में देखा जाय तो पर्यावरण हम लोगों से शुरू व समाप्त होता है। इसे संरक्षित करना या बिगाड़ना हमारे ही हाथों में है। पर्यावरण पर जो संकट के बादल मंडरा रहे हैं उस पर अपना विचार प्रकट करते हुये उन्होंने कहा कि इसका उपाय है - जैन दृष्टि से स्वस्थ्य चिन्तन कर, आपसी भेदभाव छोड़ना, हिंसा से विरक्त होकर स्वयं को साधना से जोड़ना। इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित श्रमण संघीय जैन मुनिद्वय श्री सुमति मुनि एवं पूज्य श्री विचक्षण मुनि ने शोध-विषय की सराहना करते हुये समाज व धर्म के प्रति आकृष्ट होने के लिए प्रोत्साहित किया। कार्यक्रम समन्वयक व कार्यकारी निदेशक डॉ० बालाजी गणोरकर ने कहा कि जैन धर्म ही विश्व का एकमात्र धर्म है जिसमें अहिंसा की विभावना के अन्तर्गत एकेन्द्रिय से पंचेंद्रिय जीवों के अस्तित्व का सतत, मनन, चिन्तन व संरक्षण होता है तथा जैन चतुर्विध संघ अपने आचार विचार में गहराई से सह-अस्तित्व की मान्यता स्वीकार करते हुए “मित्ति में सव्व भूएसु" हेतु सदैव जागृत रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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