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१४४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ वाले कवियों में प्रो० शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी, डॉ० कौशलेन्द्र पाण्डेय, डॉ० उपेन्द्र पाण्डेय, प्रो० चन्द्रमौलि द्विवेदी, डॉ० प्रभुनाथ द्विवेदी, डॉ० कृष्णकान्त शर्मा, डॉ० सूर्यप्रकाश व्यास, डॉ० श्री किशोर मिश्र, प्रो० अमरनाथ पाण्डेय, डॉ० कमलाप्रसाद सिंह, डॉ० चन्द्रकान्त द्विवेदी एवं प्रो० रामचन्द्र पाण्डेय, वाराणसी के नाम उल्लेखनीय हैं।
दिनांक २८.०२.२००६ को प्रात: ९.३० बजे प्रो० संघसेन, दिल्ली की अध्यक्षता में प्रथम सत्र का शुभारम्भ हुआ। इस सत्र में जिन विद्वज्जनों ने अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किये उनके नाम हैं - डॉ० अरुण प्रताप सिंह, बलिया; डॉ० दीनानाथ शर्मा, गुजरात विश्वविद्यालय; प्रो० सीताराम दूबे, उज्जैन; प्रो० ब्रजबिहारी चौबे, उज्जैन, प्रो० महेश्वरी प्रसाद, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
द्वितीय सत्र भी प्रो० संघसेन, दिल्ली की अध्यक्षता में प्रारम्भ हुआ। इस सत्र में जिन विद्वानों के शोध-प्रस्तुत किये गये उनमें डॉ० अर्चना शर्मा, डॉ० अर्पिता चटर्जी, वाराणसी; प्रो० संघसेन, दिल्ली; प्रो० बिन्देश्वरी प्रसाद मिश्र, उज्जैन उल्लेखनीय हैं।
पत्रों की बाहुल्यता के कारण प्रो० सीताराम दूबे, उज्जैन की अध्यक्षता में एक विशेष सत्र भी चलाया गया जिसमें अनेक शोध-पत्र प्रस्तुत किये गये। इस सत्र में जिन विद्वानों ने अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किये वे हैं - कुमारी सरिता शुक्ला, डॉ. किरण श्रीवास्तव, कुमारी अभिलाषा त्रिपाठी; कुमारी अदिति, कुमारी ऋचा सिंह, डॉ० अनामिका सिंह, डॉ० हेरम्भ पाण्डेय, डॉ० हरीश्वर दीक्षित, श्री योगेन्द्र कुमार मिश्र, डॉ० एस०एस० चन्देल एवं डॉ० संध्या श्रीवास्तव, वाराणसी।
तृतीय सत्र का प्रारम्भ ३.०० बजे प्रो० ब्रजबिहारी चौबे की अध्यक्षता में हुआ। इसमें डॉ० सावित्री सिंह, डॉ० बी०आर० मणि, सुश्री तीष्य रक्षिता सिंह, डॉ० शारदा सिंह आदि विद्वानों के शोध-पत्र प्रस्तुत किये गये।
सायं ४.०० बजे समापन सत्र प्रारम्भ हुआ। समापन सत्र की अध्यक्षता प्रो० ब्रजबिहारी चौबे, उज्जैन की अध्यक्षता में हुआ। मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए प्रो० सिंह ने कहा कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 'वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं के परस्पर आदान-प्रदान' विषयक संगोष्ठी की महती आवश्यकता थी। आज हम पाश्चात्य अंधानुकरण कर रहे हैं लेकिन हम अपनी भारतीय संस्कृति की ओर नहीं देख रहे हैं। आज आवश्यकता है उसे जानने और समझने की। सारस्वत अतिथि डॉ० बी०आर० मणि ने वैदिक एवं श्रमण परम्परा की ऐतिहासिकता पर प्रकाश
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