Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 123
________________ ११६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ उल्लेख मिलता है। भगवतीआराधना, मूलाचार, षटखण्डागम आदि ग्रन्थों में अचेलता को लेकर अनेक नियमों का उल्लेख मिलता है। जैन श्रमण संघ में इस बात पर विशेष बल दिया गया कि साधु साध्वियों के पारस्परिक सम्बन्ध ऐसे हों जिनसे उनका चारित्रिक पतन न हो और वे सामाजिक कल्याणार्थ आध्यात्मिक पथ पर बढ़ते चले जाएं। यद्यपि जैन श्रमण.संघ की मान्यता थी कि श्रमणों के लिए न अशन का निर्माण किया जाय, न वसन का और न भवन का निर्माण किया जाय। किन्तु श्रमणी के शील सुरक्षार्थ आवास के सम्बन्ध में भी नियम बनाये गए। भिक्षु-भिक्षुणियों का एक ही मकान में रहना वर्जित है। धर्मशाला, बिना छत का मकान, वृक्षमूल एवं खुली जगह पर रहना भी विधि नियमों के विरुद्ध माना गया है, तथा श्रमणी के लिए जहां दुकान हो, गली के किनारे का स्थान आदि अनुकल्प्य माने गये हैं। ठीक ऐसे ही श्रमण परम्परा के दूसरे दर्शन बौद्ध दर्शन में भी बुद्ध भिक्षु-संघ या भिक्षुणी-संघ के आवास या विहार के समर्थक नहीं थे। भिक्षुओं को उपसम्पदा के समय जिन चार निश्रयों की शिक्षा दी जाती थी, उनमें से एक निश्रय के अनुसार उन्हें वृक्ष के नीचे निवास करना है। इन नियमों में अपवाद भी देखने को मिलता है। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य भिक्षुओं के लिए अनेक विहार के विद्यमान होने का उल्लेख प्राप्त होता है। जैन श्रमण श्रमणियों के यात्रा सम्बन्धी जो नियम बनाये गये हैं, उनका मुख्य उद्देश्य जन-सामान्य को धर्मोपदेश देना तथा स्थान-विशेष से अपनी आसक्ति तोड़ना है। दोनों धर्मों में श्रमण श्रमणियों को पूर्व निश्चय के साथ यात्रा न करने का विवरण मिलता है। यदि मार्ग भयानक हो तो भिक्षु-भिक्षुणी संघ साथ में यात्रा कर सकते हैं। वर्षाकाल को छोड़ शेष महीने एक ग्राम से दूसरे ग्राम (ग्रामाणुगाम) विचरण करने का तथा लोगों के कल्याणार्थ उपदेश देने का निर्देश दिया है। जैसे-जैसे जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार बढ़ता गया, जैन भिक्षु-भिक्षुणियों के भ्रमण क्षेत्र में भी विस्तार होता गया। उन्हें अन्य क्षेत्रों में यात्रा करने का निषेध इसीलिए किया गया ताकि उन्हें आहार तथा उपाश्रय आदि प्राप्त करने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। वहीं बौद्ध भिक्षुणियों को भिक्षु-संघ के साथ ही वर्षावास व्यतीत करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि बौद्ध भिक्षुणियों के प्रवारणा (प्रतिक्रमण) उपोसथ तथा उपदेश जैसे धार्मिक कृत्य बिना भिक्षु-संघ की उपस्थिति के नहीं हो सकते हैं। इसके विपरीत जैन भिक्षणियाँ संघ के अभाव में भी अपना वर्षावास व्यतीत कर सकती हैं एवं उपोसथ या प्रवारणा के लिए उन्हें भिक्ष संघ के समक्ष उपस्थित होना अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार भिक्षु-भिक्षणियों को यात्रा सम्बन्धी अनेक मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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