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जैन श्रमण संघ में विधि शास्त्र का विकास : ११५
संघ के सभी नियमों के विज्ञ एवं प्रशासनिक योग्यता में अत्यंत निपुण होते थे। यद्यपि इनके योग्यता और दायित्व के बारे में आगमों में एकरूपता नहीं है। आचारांग और उनके परवर्ती युग में संघ की केन्द्रीय व्यवस्था समाप्त होने के फलस्वरूप प्रत्येक गण और गच्छ के स्वतन्त्र व्यवस्था के विवरण मिलते हैं।
यद्यपि वस्त्र, पात्र, उपकरणों आदि के बारे में संघ में सभी प्रकार के वस्तुओं को ही श्रमणों के लिए अग्रहणीय माना गया गया है। किन्तु जीवन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें कुछ वस्तुएं रखने की अनुमति है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार श्रमण के आवश्यक वस्तुओं को तीन भागों में बाँटा गया है-२ पुस्तक, मोर की पिच्छी, जलपात्र कमण्डल आदि। श्वेताम्बर परम्परा में वस्त्र, पात्र, कमण्डल और रजोहरण इन चार उपकरणों का विधान है। प्रश्नव्याकरण आदि सूत्रों में चौदह वस्तुओं को श्रमण के योग्य माना गया है, किन्तु धीरे-धीरे मुनि अपनी सुख सुविधाओं हेतु वस्तुओं की संख्या में वृद्धि करते गए। इतना ही नहीं गुलिका, खोल, परतीथिक आदि औजार भी रखने लगे। वस्तुत: जैन श्रमणों को जिन वस्तुओं को रखने का विधान है उनमें संयम की सुरक्षा ही प्रमुख है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो श्रमण वस्तुओं का संग्रह करता है वह श्रमण नहीं गृहस्थ है।
__जैन श्रमण संघ में साधु-साध्वी के लिए सादा और सात्विक भोजन का प्रावधान है जिसमें शुद्धता का पर्याप्त ध्यान रखा गया है। साथ ही उनके भोजन का भार समाज के किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष पर न पड़े इसलिए मुनियों को भ्रमण करते हुए आहार अथवा भिक्षा के विधान का विकास किया गया। मुनि को भोजन में स्वाद लोलुपता न रखकर संयम पालन के लिए आहार ग्रहण करने का आदेश है। इस प्रकार आहार के सम्बन्ध में दोनों संघों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। जैन संघ अति कठोर आचार में विश्वास करता है।
जैन श्रमण संघ में वस्त्र; अचेलता और सचेलता के सम्बन्ध में प्राचीन काल से ही विवाद होता रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन्हीं नियों को लेकर ही श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय निर्मित हुए। क्योंकि इनकी मान्यता थी कि बिना अचेलत्व मुक्ति नहीं प्राप्त होगी। परन्तु इस कठोर दृष्टिकोण के बावजूद श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में निर्वस्त्रता का पूर्णतया पालन सम्भव न हो सका। वास्तव में देखा जाए तो वस्त्र सम्बन्धी नियम मूलत: मुनि आचार से सम्बन्धित है क्योंकि गृहस्थ उपासक उपासिकाओं और साध्वियों के लिए तो जैन धर्म में प्रारम्भ से ही वस्त्र का विधान है। श्वेताम्बर परम्परा के आगम ग्रंथ आचारांग से लेकर बाद के परवर्ती ग्रंथों तक में वस्त्र सम्बन्धी अनेक नियमों का
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