________________
जैन श्रमण संघ में विधि शास्त्र का विकास : ११३
ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहना भी सम्भव नहीं होगा कि पाटलिपुत्र और वल्लभी वाचना में क्या नियम उपनियम बनाए गये और किन-२ नियमों को बदला गया। जैन श्रमण संघ के इतिहास पर दृष्टि डालें तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि जैन श्रमण संघ के विधि शास्त्रीय नियम किसी एक काल या एक व्यक्ति द्वारा नहीं स्थापित किये गये बल्कि पूरी श्रमण संस्कृति नियमों के विकास में सहायक रही है।
सर्वप्रथम विधि-व्यवस्था को प्रतिपादित करने के लिए जैन संघ को चार भागों में विभाजित किया गया है -
१. भिक्षु संघ २. भिक्षुणी संघ ३. श्रावक संघ (उपासक संघ) ४. श्राविका संघ (उपासिका संघ)।
जैन संघ में भिक्षु-भिक्षुणी उपासक और उपासिकाओं के वस्त्र, आहार, विहार, दिनचर्या से सम्बन्धित अनेक नियम और उपनियमों का वर्णन मिलता है। जैन श्रमण संघ में भिक्षु-भिक्षुणियों का एक नियमित धार्मिक संगठन होता है और उसी के अनुसार नियमों का कठोरता से पालन करने का विधान है। जबकि श्रावक-श्राविकाओं का संघ नियमों के पालन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता देता है। श्रावक-श्राविकाओं को अपनी रुचि, शक्ति और परिस्थिति के अनुसार यथायोग्य क्रियाकाण्ड करने का एवं उनके समाज के सामान्य नियमानुसार व्यावहारिक प्रवृत्तियों में लगे रहने का वर्णन मिलता है। गृहस्थ वर्ग समाज व्यवस्था का परिपालन, जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन एवं संरक्षण करके करता है। जबकि श्रमण संघ पूर्णतः त्याग का उद्देश्य लेकर आध्यात्मिक पथ का वरण करता है। वास्तव में विधि-व्यवस्था, आचरण सम्बन्धी नियमों की परिपालना है जिन्हें व्रत कहा जाता है। व्रत सम्बन्धित नियम संघ पर जबर्दस्ती नहीं थोपे जाते अपितु गृहस्थ अथवा श्रमण दोनों नैतिक उत्कर्ष की ओर अपने कदम दृढ़ता से बढ़ाते हुए स्वेच्छा से स्वीकारते हैं यद्यपि जैन श्रमण संघ में व्यक्तिगत साधना की व्यवस्था भी है फिर भी सामुदायिक साधना की भावना ही मुख्य रही है।
श्रमण-संघ की विधि-व्यवस्था के पीछे मुख्य रूप से आध्यात्मिक चिन्तन रहा है। जैन आचार व्यवस्था का आधार भगवान महावीर के उपदेश ही थे। परन्तु यह भी सत्य है कि सभी नियमों और उपनियमों का निर्माण तीर्थंकर ही नहीं करते थे। बहुत से ऐसे नियम और उपनियम हैं जिनके निर्माता श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य अनेक गीतार्थ स्थविर भगवान रहे हैं। उन्होंने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को दृष्टि में रखकर मूल नियमों के अनुकूल उनके समर्थक और अविरोधी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org