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श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ जनवरी-मार्च २००६
जैन श्रमण संघ में विधि शास्त्र का विकास
डा० शारदा सिंह
प्रस्तुत लेख डॉ० शारदा सिंह को भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा प्रदत्त उनके पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप हेतु स्वीकृत विषय का सारांश है जिसपर वे पार्श्वनाथ विद्यापीठ में कार्य कर रही हैं - सम्पादक
भारतीय दर्शन के इतिहास का पूर्वार्द्ध प्रमुखत: निवर्तक और प्रवर्तक धर्मों के उद्भव, विकास और संघर्ष का इतिहास है, जबकि उत्तरार्द्ध इनके समन्वय का इतिहास है। जैन धर्म निवर्तक धर्मों का प्रतिनिधि दर्शन है। इसलिए जैन दर्शन में श्रमण जीवन को सर्वोच्च माना गया है। श्रमण जीवन एक उच्चस्तरीय नैतिकता एवं आत्मसंयम का जीवन है। श्रमण संस्था पवित्र बनी रहे इसलिए श्रमण संस्था में प्रविष्ट होने के लिए भिक्ष-भिक्षुणी की दिनचर्या, वस्त्र, आहार, विहार, शील नियन्त्रण आदि से सम्बन्धित विधि नियमों -उपनियमों की आवश्यकता महसूस हुई।
विधि सम्बन्धित नियमों पर किसी भी प्रकार की चर्चा से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि विधि शास्त्र के नियमों को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है, अत: आज जो नियम प्रचलित हैं वो प्राचीन काल से वैसे ही नहीं चले आ रहे हैं। यहां पर यह कहना असंगत नहीं होगा कि इस अन्तराल में कुछ नियम परिस्थिति के साथ बदल दिये गये और कुछ वाचनाओं के माध्यम से आचार्यों द्वारा प्रतिपादित किये गये। जैन साहित्यिक साक्ष्यों से यह पता चलता है कि महावीर निर्वाण के १६० वर्ष बाद प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में,३०० वर्ष पश्चात्, द्वितीय वाचना उड़ीसा में, वीर निर्वाण संवत् ८२७ अर्थात् ई० सन् की तीसरी शताब्दी में मथुरा में, लगभग उसी समय चौथी वाचना वलभी में और वीर निर्वाण के ९८० वर्ष बाद अर्थात् ई० सन् की पांचवीं शताब्दी में वल्लभी में हुई। अन्तिम वल्लभी वाचना मौर्यों के समय पाटलीपुत्र में, और मथुरा में चौथी शताब्दी में वाचनाएं हुईं। पांचवीं और छठी शताब्दी में हुई वल्लभी वाचना विधि सम्बन्धित नियमों उपनियमों के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी है। . * पोस्ट डॉक्टोरल फेलो, भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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