Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 116
________________ 'दया-मृत्यु' एवं 'संथारा-प्रथा' का वैज्ञानिक आधार : १०९ यद्यपि 'दया-मृत्यु' अमंगल से मंगल की यात्रा है। तथापि ‘दया-मृत्यु' के विषय में अन्तिम निर्णय लेना प्रभावित व्यक्ति अथवा उसके आत्मीय जनों एवं डॉक्टरों के लिए दुरूह कार्य है, जो ईश्वर की भूमिका निभाने जैसा है। यही कारण है कि ‘दया-मृत्यु' की अवधारणा को लेकर जीवन और मृत्यु से सम्बन्धित अनेक प्रश्न उठाये जाते हैं। जो मुख्यतः 'दया-मृत्यु' के निर्णय लेने के 'दुरुपयोग' की आशंका पर आधारित हैं। कहा जाता है कि उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण के दृष्टिकोण से प्रभावित समाज के नैतिक पतन की कोई सीमा नहीं है। फलस्वरूप असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति स्वयं को परिवार या समाज पर भार समझ सकता है अथवा परिवार एवं समाज के लोग भी रोगी को वित्तीय एवं सुख-सुविधा के दृष्टिकोण से अनुपयोगी समझ सकते हैं। अन्ततः ‘दया-मृत्यु' भी 'सती-प्रथा' की भाँति एक बाध्यकारी विकल्प बन जाएगा। बात कष्टकारक है, मगर सत्य है कि डॉक्टर भी चन्द रुपयों के लिए 'पोस्ट मार्टम रिपोर्ट' तक को बदल देते हैं। ध्यातव्य है कि 'दया-मृत्यु' की अवधारणा यादृच्छिक (Arbitrary) निर्णय पर आधारित नहीं है। अपितु ‘दया-मृत्यु' का क्रियान्वन वैज्ञानिक आधार पर किया जाता है। जो एक पैनल के गंभीर विचार-विमर्श के निर्णय पर निर्भर होता है। इस निर्णय में वैज्ञानिक, चिकित्सकीय एवं मनोचिकित्सकों के परामर्श, रोगी अथवा आत्मीय जनों की सहमति के साथ-साथ कोई आपत्ति प्रस्तुत न किये जाने पर ही क्रियान्वित करने का निर्देश है। साथ ही 'दुरुपयोग' की आशंका तो किसी भी अवधारणा के प्रति व्यक्त की जा सकती है। जैसे- 'अल्ट्रासाउण्ड' का दुरुपयोग करके 'भ्रूण-हत्या' विवेकशील चिकित्सक, जननी एवं संरक्षक के द्वारा सोच समझकर ही क्रियान्वित किया जाता है। अत: किसी भी अवधारणा के दुरुपयोग को कानून से नहीं रोका जा सकता है। कर्तव्यबोध आत्मरोपित नैतिकता पर आधारित होता है। इसलिए सर्वप्रथम अमेरिका के 'ओरेगन-राज्य ने १९९७ में असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्तियों को वेदना रहित ‘दया-मृत्यु' अपनाने का विधिक अधिकार प्रदान कर दिया। अप्रैल २००२ से हालैण्ड ने भी 'दया-मृत्यु' को विधि सम्मत बना दिया। वेल्जियम ने हालैण्ड का अनुसरण किया। अब पूरे यूरोप, आस्ट्रेलिया इत्यादि ईसाई देशों में भी 'दया-मृत्यु' पर गंभीर विचार-विमर्श हो रहा है। भारत के बिनोवा भावे द्वारा जीवन त्याग को 'दया-मृत्यु' का दृष्टान्त माना जा सकता है, क्योंकि जब बिनोवाजी ने दवा देना बन्द कर दिया तो न्यायालय तक ने कहा था कि आप किसी व्यक्ति को जीवित रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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