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| श्रमण, वर्ष ५७, अंक १||
जनवरी-मार्च २००६
'दया-मृत्यु' एवं 'संथारा-प्रथा' का वैज्ञानिक आधार
डा० रामकुमार गुप्त*
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मानव जीवन आस्थामूलक है। यह आस्था विचारशीलता, आत्मबोध, परहित-भाव एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अपेक्षा रखती है। महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा, 'हे पाण्डव! व्यक्ति का विस्तार कितना होता है? साधारण व्यक्ति इसका उत्तर यह देता- ‘यक्ष बन्धु! लगभग साढ़े तीन हाथ'। परन्तु युधिष्ठिर का उत्तर इससे भिन्न है। उन्होंने मनुष्य के त्रिकाल व्याप्त बौद्धिक एवं नैतिक आयामों को ध्यान में रखते हुए उत्तर दिया था- 'व्यक्ति के कर्मों का यश पृथ्वी से उठकर आकाश को स्पर्श कर लेता है। किसी मनुष्य के शुभ-कर्मों की ध्वनि जितने क्षेत्र में व्याप्त होती है, उतना ही उस व्यक्ति का विस्तार समझो।
किन्तु बीसवीं सदी के व्यक्ति की जीवन-दृष्टि उपयोगी एवं अनुपयोगी मानक से अनुराग रखती है। यह जीवन-दृष्टि समाज को ऐसे यक्ष प्रश्न पर विचार-विमर्श हेतु विवश कर रही है, जिसके श्रवण मात्र से ही व्यक्ति में कंपकंपी उत्पन्न हो जाती है। लेकिन व्यक्ति सामाजिक यथार्थ से भी असम्पृक्त नहीं रह सकता। यही कारण है कि अब समाज ने जीवन के वसीयत पर विचार-विमर्श हेतु मंच बना लिया है। जिसे 'वर्ल्ड फेडरेशन आफ टू डाई सोसाइटी' कहा जाता है। इस गैर अन्तर्राष्ट्रीय मंच का प्रथम सम्मेलन १९७६ में जापान के शहर टोक्यो में आयोजित हुआ था। तब से प्रत्येक दूसरे वर्ष यहाँ इसका आयोजन किया जाता है। फेडरेशन की वेबसाइट के अनुसार- जब व्यक्ति की मानसिक स्थिति ऐसी हो कि वह कोई निर्णय लेने में असमर्थ हो, तो मनुष्य के पास यह अधिकार होना चाहिए कि उसे कब और कैसे मरना है?
भारत में मुम्बई की मीनू मसानी ने भी १९८१ में 'द सोसाइटी फार द राइट टू डाई विद डिगनिटी' स्थापित किया है।
ज्ञातव्य है कि 'दया-मृत्यु' की अवधारणा बीसवीं सदी की अभिव्यक्ति है। यह असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति की शारीरिक वेदना से जीवन को अन्त करने का चिकित्सकीय साधन है (Medical Termination of Life- (MTL). * वरिष्ठ प्राध्यापक, दर्शनशास्त्र-विभाग, टी०डी० पी०जी० कालेज, जौनपुर२२२००२ (यू०पी०)
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