________________
९८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ / जनवरी-मार्च २००६
बाहुक एवं तारायण (अथवा नारायण) ने शीतल जल का सेवन करके, असित देवल, द्वैपायन एवं पराशर ने शीतल जल - बीज तथा हरी वनस्पतियों का उपभोग करके मोक्ष को प्राप्त किया था।
उपर्युक्त जिन ऋषियों का उल्लेख है वे सबके सब वैदिक परम्परा से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार प्रथम उपांग ग्रन्थ औपपातिक में भी वैदिक ऋषियों को सम्मानपूर्वक स्थान दिया गया है। यहाँ सांख्य मत के मानने वाले, योग परम्परा को स्वीकार करने वाले, कापिल अर्थात् महर्षि कपिल की परम्परा वाले, भार्गव अर्थात् भृगु ऋषि की परम्परा वाले, हंस, परमहंस, बहूदक एवं कृष्ण परिव्राजकों का उल्लेख है। इसके उपरान्त औपपातिककार ने आठ ब्राह्मण परिव्राजकों एवं आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख किया है। आठ ब्राह्मण परिव्राजकों में कर्ण, करकण्डु, अम्बड, परासर, कृष्ण, द्वैपायन, देवगुप्त या देवपुत्र और नारद का उल्लेख है।
"कण्णे य करकण्डे य अंबडे य परासरे।
कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते य नारए । । "३
इसी प्रकार आठ क्षत्रिय परिव्राजकों में शीलधी, शशिधर, नग्नक, भग्नक, विदेह, राजराज, राजराम तथा बल का उल्लेख है।
"सीलई ससिहारे य नग्गई भग्गई ति य । विदेह रायाराया, रायारामे बलेति य ।। "४
औपपातिककार के अनुसार वैदिक परम्परा के ये श्रेष्ठ ऋषि ऋक्, यजु, साम, अथर्व - इन चारों वेदों तथा इतिहास एवं निघण्टु के ज्ञाता थे। इन्हें चारों वेदों का सारक अर्थात् अध्यापन द्वारा सम्प्रवर्तक अथवा स्मारक अर्थात् दूसरे व्यक्तियों को स्मरण कराने वाले, पारग अर्थात् वेदों के पारगामी और धारक अर्थात् वेदों को स्मृति में बनाए रखने में सक्षम कहा गया है। ये वेदों के छहों अंगों के ज्ञाता थे। इन परिव्राजकों के आचरण की विस्तारपूर्वक प्रशंसा की गई है । " इसी प्रकार जैन परम्परा के एक विशिष्ट ग्रन्थ ऋषिभाषित में जैन एवं जैनेतर दोनों परम्पराओं के छियालिस ऋषियों को महत्त्वपूर्ण स्थन दिया गया है। इस जैन ग्रन्थ में वर्णित ऋषियों में वैदिक, बौद्ध एवं आजीविक परम्परा के ऋषियों को भी स्थान प्राप्त है। वैदिक ऋषियों में देव नारद, वात्सीपुत्र, असितदेवल, अंगिरस, याज्ञवल्क्य, मधुरायण, शौर्यायण, विदुर, आर्यायण, रामपुत्र, अम्बड, उद्दालक, अरुण, पिंग,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International