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वैदिक ऋषियों का जैन परम्परा में आत्मसातीकरण : ९९
संजय, द्वैपायन, ऋषिगिरि, तारायण या नारायण, इन्द्रनाग, वायु, सोम, यम, वरूण और वैश्रमण का उल्लेख है। इन ऋषियों को सिद्ध, बुद्ध एवं जिन कहा गया है।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आत्मसातीकरण की इस प्रक्रिया का आधारबिन्दु क्या था अर्थात् वे कौन सी मूलभूत योग्यताएं एवं विशेषताएं थीं जिनसे प्रभावित होकर जैन आचार्यों ने वैदिक ऋषियों एवं परिव्राजकों को अपनी परम्परा में आत्मसात करने का प्रयास किया। सन्दर्भित ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि जैनों ने उन्हीं श्रेष्ठ पुरुषों एवं देवताओं को स्थान दिया जिनके आचरण एवं व्यवहार उनके सिद्धान्तों के निकट थे या मान्य थे। सूतकृतांगकार ने नमी, वैदेही, बाहुक, असितदेवल या परासर आदि ऋषियों को तपरूपी धन से सम्पन्न (तपोधन) कहा है। निश्चित ही तपस्या जैन धर्म का मूल अंग रही है। कठोर तपस्या ही इनका आदर्श था। चूँकि ये ऋषि तपस्या में संलग्न थे अत: भिन्न परम्परा के होते हुये भी उन्हें अंग-आगम में स्थान दिया गया यद्यपि उनके सामान्य आचरण, भोजन आदि जैन परम्परा के मान्य सिद्धान्तों के प्रतिकूल थे।
इसी प्रकार ऋषिभाषित में वर्णित ऋषियों के उपदेशों का अध्ययन करें तो उपर्युक्त तर्क और सबल रूप में पष्ट होता है। इन ऋषियों के उपदेश निश्चित ही वैदिक परम्परा के समनुरूप रहे होंगे परन्तु इस विशिष्ट ग्रन्थ में उन्हीं उपदेशों को संकलित किया गया है जिन पर कोई मतभेद नहीं था और जो जैन मान्य सिद्धान्तों के निकट थे। उदाहरणार्थ - देवनारद का जो उपदेश संकलित है, वह जैन परम्परा में वर्णित पञ्चयाम अथवा पञ्चमहाव्रत के सर्वथा समनुरूप है। इसमें नारद ने उपदेश दिया है कि साधक त्रिकरण (कृत, कारित एवं अनुमोदित), त्रियोग (मनोयोग - वचनयोग-काययोग अर्थात् मन, वचन एवं काय) से न तो हिंसा करे (पाणातिपातं), न असत्य (मुसावादं) बोले और न अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह (अब्बम्भं-परिग्गह) का सेवन करे और न करवाये। उनके अनुसार एक सच्चा मुमुक्षु सत्य, दत्त और ब्रह्मचर्य की उपासना करता है और यही उसके उपधान अर्थात् साधन हैं"। इसी तरह असित देवल के उपदेशों में स्थूल एवं सूक्ष्म प्राणियों के हिंसा की निन्दा की गई है। हिंसा करने वाले को पापकर्म से बँधा हुआ बताया गया है।
"सहुमे वा बायरे वा, पाणे जो तु विहिंसइ। रागदोसाभिभूतप्या, लिप्यते पावकम्मणा।।"८
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