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१०० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह - इन पाचों दुर्गुणों को लेप (smear) कहा गया है और यह बताया गया है कि ये आत्मा के बन्धन स्वरूप हैं।
"पाणातिवातो लेवो, लेवो अलियवयणं अदत्तं च। मेहुणगमणं लेवो, लेवो परिग्गहं च।।"९
और इन पापवर्द्धनकारी प्रवृत्तियों के परित्याग का उपदेश दिया गया है। इसी प्रसंग में क्रोध, मान, माया, लोभ की चर्चा है जिससे विरत रहने की सलाह दी गई है। इन्हें भी लेप अर्थात् बन्धनकारी माना गया है। स्पष्ट है असितदेवल के उपदेश जैन परम्परा के सर्वथा अनुकूल थे। पञ्चमहाव्रतों के साथ ही जैन परम्परा में कषायों का उल्लेख बहुश: हुआ है। क्रोध, मान, माया और लोभ ही कषाय हैं। प्राय: सभी जैन आचार्यों ने कषायों के शमन का उपदेश दिया है। अंगरिसी या अंगिरस का उपदेश भी ध्यातव्य है। ये एक प्रख्यात वैदिक ऋषि थे। इनके उपदेशों में भी परिग्रह की निन्दा गई है। उसे आदानरक्षी कहा गया है अर्थात् ग्रहण का रक्षण करने वाला है। ऐसे पुरुष को अशोभनीय कर्म करने वाला एवं बन्धनकारी माना गया है। अंगिरस के पूरे उपदेश में परिग्रह की निन्दा की गई है।
यहाँ अष्टप्रचवनमाता (अक्खोवंजणमादाय) अर्थात् ५ समिति एवं ३ गुप्ति का भी उल्लेख है जो कालान्तर में जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त बन गया। इसमें शील-ज्ञान एवं दर्शन की महिमा गायी गई है। यह कहा गया है कि शील ही धुरायुक्त रथ है जिसके ज्ञान और दर्शन सारथी हैं। ऐसे रथ पर आरूढ़ होकर आत्मा अपने आत्म-स्वभाव को पाने का प्रयास करता है।
"सीलक्खरहमारूढो, णाणदंसण सारथी।
अप्पणा चेव अप्पाणं, चोदित्ता सुभमेहती।।" ११ इसी प्रकार पुष्पशाल के उपदेशों में पंचमहाव्रतों - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की चर्चा है।
"ण पाणे अतिपातेज्जा, अलियादिण्णं च वज्जए।
ण मेहुणं च सेवेज्जा, भवेज्जा अपरिग्गहे।।"१२ यहाँ ऋषि याज्ञवल्क्य का सन्दर्भ विशेष उल्लेखनीय है। यदि हम ऋषिभाषित एवं बृहदारण्यक के उल्लेखों की चर्चा करें तो दोनों में न केवल भाव की समानता है अपितु भाषा की अद्भुत संगति देखने को मिलती हैं। यहाँ साधक को वित्तैषणा एवं लोकैषणा का त्याग करके भिक्षाचर्या का उपदेश दिया गया है।
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