________________
९६ :
श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
४. विरोधी : अपने जीवन, सम्पत्ति या देश की रक्षा हेतु होने वाली हिंसा। ___ साधु लोग उपर्युक्त चारों प्रकार की हिंसा का परित्याग करते हैं। गृहस्थ को भी प्रथम प्रकार की हिंसा का पूर्णत: त्याग करना चाहिए। अन्य तीन प्रकार की हिंसा का त्याग, उसके लिये सम्भव नहीं है तथापि उनमें भी विवेक या जागरुकतापूर्वक जीवनयापन करना आवश्यक है।
अहिंसा का जो नकारात्मक रूप है, उसकी ओर सबका ध्यान गया है पर उसका जो सकारात्मक रूप है, उस पर कम ध्यान दिया गया। आचार्य अमितगति ने इसे बड़े सुदर रूप में अभिव्यक्त किया है :
"सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं। माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव!।।"
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, गुणज्ञों के प्रति प्रमोद, व्यथितों के प्रति करुणा तथा अपने से विपरीत भाव रखने वालों के प्रति तटस्थ वृत्ति - हे प्रभो! मेरी आत्मा में ये भाव सदैव सुस्थिर हों।
ये ही वे भाव हैं जिनकी उपादेयता यूनेस्को ने की है और इनको ही हमारे राष्ट्रपति डॉ० ए०पे०जी० अब्दुल कलाम प्रचारित करना चाहते हैं। इन चारों भावनाओं में जैन धर्म के शाश्वत मूल्य विद्यमान हैं, जो सारे विश्व में शान्ति और सह-अस्तित्व को मजबूत कर सकते हैं तथा प्राणिमात्र को वास्तविक सुख और आनन्द प्रदान कर सकते हैं। संदर्भ :
१. ज्ञानार्णव, शुभचन्द्र, ३/४. २. 'हिन्दु' राष्ट्रीय दैनिक, चेन्नई, दिनांक १८-१०-०३. ३. दशवैकालिक सूत्र, १/१. ४. सूत्रकृतांग सूत्र, १/११/१०. ५. आचारांग सूत्र, १/२/३/६३. ६. दशवैकालिक सूत्र ८/३७. ७. उत्तराध्ययन नियुक्ति, १८०. ८. परमात्म- द्वात्रिंशिका, १.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org