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जैन धर्म के जीवन मूल्यों की प्रासङ्गिकता : ९५
। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार हिंसा जीव के कर्म-बन्धन का मुख्य कारण है, इससे आत्मा की शक्तियाँ क्षीण होती हैं तथा मनुष्य राग एवं द्वेष से ग्रसित होकर पतन को प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप जन्म एवं मरण का चक्र बढ़ता ही जाता है। क्या हम किसी ऐसे किसी समाज की कल्पना कर सकते हैं, जहाँ सभी हिंसा से ग्रस्त हैं? वहाँ किसी प्रकार की शान्ति असम्भव है, वह तो जंगली राज्य होगा। कुछ व्यक्ति कहते हैं कि “जीवो जीवस्य भोजनम् ” अर्थात् एक जीव, दूसरे जीव का भोजन है, लेकिन यह सिद्धान्त भी सही नहीं है। वास्तव में सभी जीव, एक-दूसरे के सहयोग से ही जीवित रहते हैं, विकास पाते हैं। जब जीव एक-दूसरे को परस्पर सहयोग, प्रेम एवं करुणा प्रदान करते हैं तब यह पृथ्वी सबके लिये सुखकारी हो जाती है। अत: अहिंसा का सिद्धान्त आज भी सभी समस्याओं का एक व्यावहारिक एवं प्रभावशाली समाधान है।
जैन धर्म के अनुसार हिंसा का कारण कषाय एवं प्रमाद है। भगवान महावीर ने कहा, "क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार दुर्गुण पाप की वृद्धि करने वाले हैं। जो अपनी आत्मा की भलाई चाहते हैं उन्हें इन दोषों का परित्याग कर देना चाहिए।"५ इसी प्रकार प्रमाद भी हिंसा का बहुत बड़ा कारण है। प्रमाद कई प्रकार के हैं - मद्य (शराब पीना), विषय (काम भोग), कषाय और विकथा (अर्थहीन, रागद्वेषवर्द्धक वार्ता)।६ जैनधर्म में इसलिए भाव हिंसा अर्थात् मानसिक हिंसा से भी विरत रहने को कहा गया। मानसिक हिंसा सबसे भयंकर है। व्यावहारिक जीवन में अहिंसा
एक गृहस्थ के लिये अहिंसा का पूर्णता से पालन करना सम्भव नहीं है। अतः जैन आचार्यों ने हिंसात्मक गतिविधियों के दो भाग किये - १ - कुछ जिन्हें पूर्णता से त्यागना चाहिए और २ - कुछ जिन्हें आंशिक रूप से त्यागना चाहिए। पुनः हिंसा का चार भागों में वर्गीकरण किया गया - १. संकल्पी हिंसा : जान-बूझ कर प्राणियों की हिंसा करना जैसे- सांडों
की लड़ाई। २. आरम्भी हिंसा : गृहस्थी को चलाने के लिए जिस हिंसा से बचना
सम्भव नहीं है- जैसे घर की सफाई या भोजन बनाने में किसी जीव की
अनजाने में हिंसा। ३. उद्योगी : आजीविका के लिये अर्थात् उद्योग या व्यापार चलाने में या
कृषि में होने वाली हिंसा।
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