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श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
५२. रामायण, पंडित पुस्तकालय, काशी, १९५१, अरण्यकाण्ड, षष्ठसर्ग, श्लोक
२-६ में भी दंतिलुखलिम् और उन्मज्जक साधुओं का उल्लेख मिलता है। अनेक प्रकार की तपस्या करने वाले मुनियों का उल्लेख मिलता है।
वैखनसा, वालखिल्याः संप्रक्षाला मरीचिपाः । अश्मकुट्टाश्चवहतः पत्राहारश्च तापसाः ।। दन्तोलूखनिलश्चैव, तथैवोन्मज्जकाः परे । गात्रशय्या अशय्याश्च तपैवानवकाशिकाः ।। मुनयः सलिलाहारा वायुभक्षास्तथापरे । आकाशनिलयाश्चैव तथा स्थण्डिलशायिनः ।। तथोलवासिनो दान्तास्तथापटवाससः । सजपाश्च तपोनित्यास्तथा पञ्चतपोऽन्विताः ।। सर्वे ब्राह्ययाश्रिया जुष्टा दृढयोगाः समाहिताः ।
शरभङ्गाश्रमे राममभिजग्मुश्च तापसाः ।। अर्थात् वैखानस (वानप्रस्थी तापस), बालखिल्य (अंगूठे के बराबर आकार वाले ऋषि), संप्रक्षाल्य (सदास्नानशील), मरीचिप (चन्द्र सूर्य की किरणें पीने वाले), अश्मकुट्ट (पत्थर से शरीर कूट कर आत्मदमन करने वाले), पत्राहार (पत्ते खाने वाले), दन्तोलूखली (दाँतों को उखल बनाकर काम लेने वाले), उन्मज्जक (जल में खड़े होकर तपस्या करने वाले), गात्रशय्य (बैठे-बैठे सोने वाले), अभ्रावकाश (सदा आकाश के नीचे रहने वाले), सलिलहार (केवल जल पीकर रहने वाले), वायुभक्ष (वायु पीकर रहने वाले), आकाश निलय (वृक्ष पर निवास करने वाले), स्थाण्डिलशायी (चबूतरे पर सोने वाले), उर्ध्ववासी (पर्वत-शिखर वासी), दान्त (इन्द्रिय दमनशील), आर्द्रपटवासी (गीले वस्त्र पहनने वाले), सजप (सदा जप में रहने वाले), तपोनिष्ठ (सदा वेदाध्ययन में संलग्न), पञ्चतपोऽन्वित (पंचाग्नि
तापने वाले), सभी ब्राह्मी श्री से सम्पन्न योग से मन को वश करने वाले हैं...। ५३. ललितविस्तर में भी ऐसे साधुओं को हस्तिव्रत कहा गया, औपपातिक सूत्र,
उपरोक्त प्रस्तावना, पृष्ठ ३१ पर वर्णित। ५४. 'वानप्रस्थी तापस' शब्द भी अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। यह क्या संन्यासियों से
भिन्न है? यह संसार छोड़े हुए संन्यासियों से पहले की सीढ़ी है। ५५. आज भी काशी में नंगे घूमने वाले बाबा परमहंस कहलाते हैं। ५६. औपपातिक सूत्र, उपरोक्त, सूत्र संख्या ७६, पृष्ठ १२९. ५७. अनुयोगद्वार सूत्र, जिनागम ग्रंथमाला, अंक २८, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,
१९८७,सूत्र संख्या २१; भगवती सूत्र, शतक १, उद्देशक २, सूत्र २५.
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