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महावीर कालीन मत-मतान्तर : पुनर्निरीक्षण : ७५
कथन महावीर को बताया और महावीर ने उसे मिथ्या घोषित किया। अन्ततः शिवराज ऋषि महावीर की शरण में चले गए, और कठिन तपस्या करते हुए भगवान के भक्त बनने के बाद सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त हुए। बौद्ध साहित्य भी ऐसे आहार, व्रत लेने वाले तपस्वियों का उल्लेख करता है। आधुनिक काल में भी कुम्भ आदि में एकत्रित हुए साधु संन्यासी इन वानप्रस्थी तापसों५४ की याद दिलाते हैं।
परिव्राजक भ्रमणशील साधुओं का वर्ग था, जो घूम-घूम कर अपने ज्ञान का प्रचार भी प्रवचनों के माध्यम से किया करता था। बौद्ध साहित्य और धर्मसूत्रों में भी इनके विवरण प्राप्त होते हैं। परिव्राजकों (परिव्वाया) की सूची बताते हुए औपपातिक सूत्र लिखता है - संखा (सांख्य); जोगी (योगी); कविला (महर्षि कपिल की परम्परा वाले); भिउव्वा (भृगु ऋषि की परम्परा वाले); हंसा (केवल भिक्षा के लिए गाँव में आने वाले), परमहंसा५५, (नदियों के किनारे रहने वाले,
अंत समय में नग्न रहने वाले), बहुउदगा (प्राप्त भोगों को स्वीकार करने वाले) (बहुदक), कुलिव्वया (कुटिचर) (घर में रहते हुए भी माया, मोह, लोभ, अहंकार का त्याग करने वाले) नामक चार प्रकार के यति; कन्हपरिव्वाया (नारायण की भक्ति में लगे कृष्ण परिव्राजक)।५६ कपिल मुनि के अनुसरण करने वाले चरक का उल्लेख भी जैन साहित्य५७ करता है। बौद्ध साहित्य जैन साहित्य की तुलना में परिव्राजकों का उल्लेख अधिक करता है, उनके 'आरामों' (निवास स्थल) के भी कई उल्लेख बौद्ध साहित्य में प्राप्त होते हैं, बौद्ध साहित्य परिव्राजक भिक्षओं के नाम का उल्लेख करता है तो जैन साहित्य तुलनात्मक दृष्टि से परिव्राजकों के अधिक प्रकार बताता है।
औपपातिक सूत्र इसी सन्दर्भ में आठ ब्राह्मण परिव्राजकों- कर्ण, करकण्ट, अम्बड, पाराशर, कृष्ण, द्वैपायन, देवगुप्त और नारद का उल्लेख करता है। इनमें से अम्बड का सन्दर्भ बार-बार प्राप्त होता है। यहाँ तक कि दीघनिकाय में अम्बट्ठ सुत्त भी अम्बड की लोकप्रियता बताता है। यहां विशेष यह है कि क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख करते हुए शीलधी, शशिधर, नग्नक, भग्नक, विदेह, राजराज, राजराम और बल का नाम भी प्राप्त होता है। और भी विशेष बात यह है कि दोनों ही वेद, इतिहास, व्याकरण, निघण्टु आदि के ज्ञाता बताए गए हैं। ब्राह्मण और क्षत्रिय परिव्राजकों की परम्परा तो उपनिषदों में भी प्राप्त होती है। सम्भवत: ये परिव्राजक संसार छोड़ने वाले साधु न थे, वे घूम-धूम कर बस्तियों के पास ही रहते थे, जिनसे कि इनका जीविकोपार्जन होता रहे और बदले में ये समाज को ज्ञान दिया करते थे। इन परिव्राजकों को ज्ञान होना आवश्यक था। यही कारण है कि औपपातिक सूत्र५८ इन्हें चारों वेदों, इतिहास, निघण्टु का ज्ञाता
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