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श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
जल के ऊपर तैर कर स्नान करने वाले), (१०) सम्मज्जगा (समज्जक, बारबार डुबकी लगा कर नहाने वाले), (११) निमज्जगा (निमज्जक, पानी में थोड़ी देर बैठकर स्नान करने वाले), (१२) संपक्खाला (संप्रक्षालक, मिट्टी रगड़कर स्नान करने वाले), (१३) दक्खिणकूलगा (दक्षिणकूलक, गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले), (१४) उत्तरकूलगा (उत्तर कूलक गंगा के उत्तरी तट पर निवास करने वाले), (१५) संखधमगा (शंखध्मायक, शंख बजाकर भोजन करने वाले), (१६) कूलधमगा (कूलमायक, नदी के किनारे शब्द कर भोजन करने वाले), (१७) मिगलुद्धगा - (मुग-लुब्धक, मृग का माँस खाने वाले), (१८) हस्तितापसहाथी का माँस खाकर जीवन बिताने वाले), (१९) उदंडगा (उदण्डक, दण्ड को ऊँचा कर घूमने वाले), (२०) दिसापोक्खिणो (दिशाप्रोक्षी, दिशाओं में जल छिड़क कर फल-फूल एकत्र करने वाले), (२१) वाकंवासिणो (वृक्ष की छाल को वस्त्र की तरह धारण करने वाले), (२२) बिलवासिणो (गुफाओं में रहने वाले), (२३) वेलंवासिणो (समुद्र के तट पर रहने वाले), (२४) जलवासिणो (पानी में निवास करने वाले), (२५) रुक्खमूलिया (वृक्ष के खोह में निवास करने वाले), (२६) अंबुभकिक्खणो (जल का आहार करने वाले), (२७) वाउभक्खिणो (हवा का आहार करने वाले), (२८) सेवालभक्खिणो (शैवालभक्षी, शैवाल (वृक्ष) का आहार करने वाले), (२९) मूलाहारा (मूलाहार-जड़मूल का आहार करने वाले), (३०) कंदाहारा (कन्द का आहार करने वाले), (३१) पत्ताहारा (पत्राहार, पत्तों का आहार करने वाले), (३२) पुष्पाहार (पुष्प का आहार करने वाले), (३३) बीयाहारा (बीजाहार, बीज का आहार करने वाले), (३४) परिसडियकंद मूलतय पत्तपुष्पफलाहार (अपने आप गिरे हुए, पृथक किए कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प और फल का आहार करने वाले), इसके अतिरिक्त औपपातिक सूत्र, (३५) तयाहार (वृक्ष की छाल का आहार करने वाले), और भगवतीसूत्र में ... (३६) जलाभिषेक - किहिनगात्रा (स्नान के बाद आहार न लेने वाले), (३७) अंवुवासिनस (जल में रहने वाले), (३८) वायु-वासिनस (वायु में अथवा पर रहने वाले) के उल्लेख प्राप्त होते हैं। पुनः भगवतीसूत्र के इसी शतक में उर्ध्वकंडूयक (नाभि के ऊपर के अंग को खुजलाने वाले) और अध: कंडूयक (नाभि के नीचे के अंगों को खुजलाने वाले) तापसों का उल्लेख है। यह सभी तापस हस्तिनापुर के राजा शिवराज को गंगा के तट पर मिले। दिशाप्रोक्षक तापस से शिक्षा अंगीकार कर कठिन तप किया और विभंग ज्ञान प्राप्त कर, शिवराज वापस हस्तिनापुर पहुँचे। अपने ज्ञान और दर्शन का उपदेश हस्तिनापुर में देने लगे। इसी बीच महावीर स्वामी हस्तिनापुर पहुँचे, हस्तिनापुरवासियों ने शिवराज ऋषि का
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