________________
६४ :
श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
(३) न्यायशास्त्र में कार्य कारणभाव 'अन्वय-व्यतिरेकगम्य' माना गया है लेकिन प्रतीत्यसमुत्पाद में कार्यकारण में अन्वय-व्यतिरेक बन ही नहीं सकता, क्योंकि यहाँ कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति मानी गयी है और कारण के होने पर कार्य की उत्पत्ति नहीं मानी गयी है। अत: अन्वय-व्यतिरेक के अभाव में कार्य-कारण सम्बन्ध किसी प्रकार सम्भव नहीं है। और भी कहा गया है - 'सर्वथा अनित्यपक्ष के पोषक बौद्ध लोग किसी भी अन्वयी कारण से निरपेक्ष एक सन्ताननामा तत्त्व को स्वीकार करके सर्वथा पृथक-पृथक कार्यों में कारण-कार्यभाव घटित करने का असफल प्रयास करते हैं, परन्तु वह किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता। १८
निष्कर्ष - सम्पूर्ण विवेचन से यह स्पष्टतया प्रतीत होता है कि यद्यपि बौद्ध दर्शन में मान्य प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कार्य की कारण सापेक्षता को स्वीकृत कर कार्योत्पत्ति सम्बन्धी समस्त मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करता है, परन्तु स्वयं उसके द्वारा मान्य क्षणिकवादी वस्तु में कार्य-कारण सिद्धान्त किसी भी प्रकार घटित नहीं हो सकता है। सन्दर्भ : १. (i) इमस्मिं सति इदं होति।
(ii) हेतु प्रत्ययापेक्षो भावानामुत्पादः प्रतीत्यसमुत्पादार्थः। चन्द्रकीर्ति वृति-१.१. २. (i) सत्द्रव्यलक्षणम् । ५/२९. (ii) उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत् । ५/३०.
तत्वार्थसूत्र : उमास्वामी, जयपुर, १९९६. अर्थक्रिया क्रम व यौगपद्य के द्वारा व्याप्त है।
अर्थक्रियाकारित्व लक्षणंसत् । ४. (i) न्यायकुमुदचन्द्र : आ० प्रभाचंद्र, भाग १, पृ० ३७९. (ii) न्यायकुमुदचन्द्र परिशीलन : प्रो० उदयचंद जैन, पृ० २१४, मुजफ्फरनगर,
२००१. ५. (क) वही पृ० २१०
(ख) न्यायकुमुदचन्द्र, भाग - १, पृ० ३७२-३७४. ६. न्यायकुमुदचन्द्र परिशीलन, पृ० २१०. ७. यत् स्वरूपं त्यजत्येव मन त्यजति सर्वथा।
तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिकं शाश्वतं यथा।। अष्टसहस्त्री : आ० विद्यानंद, पृ० २ १०, सोलापुर, १९९०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org