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७० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ / जनवरी-मार्च २००६
जैन साहित्य में तत्कालीन सम्प्रदायों के लिए जो शब्द प्रयोग में लाए गए हैं, वे हैं- प्रावादुक (पावाउया), यूथिक, तीर्थक, उत्थिय, ब्राह्मण (माहण), श्रमण (समण), ब्राह्मण - श्रमण (माहण समण), परिव्राजक (परिव्वाया), निह्नव (णिण्हवा), ब्राह्मण-परिव्राजक (माहण परिव्वायगा), क्षत्रिय परिव्राजक (खत्तिय परिव्वाया)।
इसी प्रकार जैन साहित्य १२ तत्कालीन ३६३ प्रावादुकों (... इमाई तिण्णि तेवट्ठाइं पावाउयसताइं) आर्थत्, शास्ताओं का उल्लेख करता है, और उन्हें चार कोटि का बताता है - क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी जो मोक्ष का निरूपण करते हैं, अपने श्रावकों को आदेश देते हैं और अपने धर्म को सुनाते हैं। यह अन्य तीर्थिक परमार्थ से रहित और हिंसा से विरत नहीं हैं। यह सभी अपने-अपने धर्म के आदि प्रवर्तक बताए गए हैं । ते सव्वे पावाउया आदिकरा धम्माणं...''। यह प्रावादुक अधर्म स्थान में समाविष्ट है- अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते, तस्स णं इमाई तिणि तेवट्ठाइं पावाउसताइं भंवतीति अक्खाताई । . विशेष बात यह है कि इस स्थान पर इन प्रावादुकों का विभाजन नहीं बताया । किन्तु सूत्रकृतांग (अध्ययन प्रथम ) में स्थान-स्थान पर कई वादों की चर्चा की गई है, वहाँ उपरोक्त चार कोटि के विभाजन भी वर्णित किए गए हैं। सूत्रकृतांग में पंचमहाभूतवाद १४, (पंच- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, महाभूत को मानने वाले), एकात्मवाद१५ (एक आत्मा को समस्त लोक में, नाना रूपों में व्याप्त देखने वाले), तज्जीवतच्छरीरवाद १६ (शरीर के विनाश होते ही देही (आत्मा) का विनाश हो जाता है, ऐसा मानने वाले), अकारकवाद१७ आत्मा स्वयं न कोई क्रिया करती है, न करवाती है, ऐसा मानने वाले)१८, आत्मषष्ठवाद १९ ( इस जगत् में पाँच महाभूतों के अतिक्ति छठी आत्मा है, आत्मा और लोक शाश्वत है, ऐसा मानने वाले) २०, क्षणिकवाद (पांच स्कंधों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) को क्षणिक मानने वाले) २२ (चार धातुओं (पृथ्वी, जल, तेज, वायु) से भिन्न आत्मा नहीं हैं ) २४, नियतिवाद २५ (अर्थात् नियति-ही संगत है, सभी जीव पृथक-पृथक हैं, सुख दुःख भोगते हैं, और एक शरीर को छोड़ दूसरे में चले जाते हैं, यही नियति है, ऐसा मानने वाले) २६ अज्ञानवाद१७ (अपने मत की प्रशंसा करते हुए, दूसरे के मत की निन्दा करने वाले, संसार में दृढ़ता से जकड़े रहने वाले), कर्मोपचय निषेधवाद २८ (कर्म की चिन्ता से रहित, जन्म-मरण रूप संसार अथवा दुःख की वृद्धि करने वाले) २९, जगत्कर्तृत्ववाद" (लोक रचना के सम्बन्ध में सात मतों को मानने वाले - उदाहरण के लिए प्रकृति ने लोक बनाया, ईश्वर ने लोक बनाया, अण्डे से लोक उत्पन्न हुआ, आदि आदि ३१), लोकवाद ३४ (लोक को अनन्त, शाश्वत मानने वाले) का वर्णन
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