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महावीर कालीन मत-मतान्तर : पुनर्निरीक्षण : ७१
करते हुए उपरोक्त सभी वादों का खण्डन किया गया। पुन: चार सिद्धान्तों का उल्लेख कर उसके भेद भी बताए -
चत्तारि समोसरणाभिमाणि पावादुया जाइं पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं अण्णाणमाहंसु चउत्थमेव५।
अज्ञानवादी वे हैं, जो संशय युक्त हैं, मिथ्या भाषण करते हैं, और सत् तथा असत् का भेद नहीं जानते। नियुक्तिकार इसके ६७ भेद बताते हैं। सत्य को असत्य, असाधु को साधु बताने वाले, पूछने पर जो विनय से मोक्ष (स्वर्ग) प्राप्ति के उपाय बताते हैं, विनयवादी कहलाते हैं। नियुक्तिकार इसके ३२ भेद बताते हैं। जीव, उसकी क्रिया, आत्मा, कर्मबंध, कर्मफल आदि नहीं मानने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं। नियुक्तिकार इसके भी ८४ भेद बताते हैं। इन तीनों का ही पूर्णरूप से खंडन किया गया है। इस प्रसंग से भगवतीसूत्र में वर्णित पउट्टरिहारवाद उल्लेखनीय है। डा० पाण्डेय३६ ने इसकी व्याख्या करते हुए अर्थ बताया- पहले से प्रवृत्त अथवा प्रारब्ध देहान्तर का धारण। इसे अक्रियावाद के समीप ठहराया है। क्रियावादी वे हैं, जो जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व मानते हैं, नियुक्तिकार इसके भी १८० भेद बताते हैं। इसे ऐकान्तिक क्रियावादी बताते हुए नियुक्तिकार सम्यक् क्रियावाद की व्याख्या करते हैं, जिसके अनुसार लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों है। जीव अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भोगता है। संसार दुस्तर है और तीर्थकर ही क्रियावाद के मार्गदर्शक हैं। क्रियावादियों की प्रशंसा करते हुए भी उन्हें प्रव्रजितों एवं मुनियों से दीक्षा लेने या उनके पास रहने की बात करते हैं। क्रियावाद के ज्ञाता को आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद का ज्ञाता भी बताते हैं।३७ इतनी प्रशंसा के बावजूद भी विद्यां और आचरण से मोक्ष प्राप्ति (विज्जाचरणं पमोक्खं) बताई गई है।
इन वादों के अतिरिक्त भी जैन साहित्य में कुछ मत-मतान्तरों की चर्चा यत्रतत्र दिखाई देती है। उदाहरण के लिए बहुरतवाद (जिनके अनुसार कार्य की निष्पन्नता बहुत समयों में होती है, अत: क्रियमाण को कृत नहीं कहा जा सकता, जिसके प्रवर्तक जमालि थे), जीवप्रादेशिकवाद (एक प्रदेश भी कम होने से जीव, जीव नहीं कहा जा सकता, वह एक प्रदेश भी वस्तुत: जीव है, ऐसा मानने वाले, इसके प्रवर्तक तिष्यगुप्ताचार्य थे), अव्यक्तवाद (सारे जगत् को अव्यक्त मानने वाले, इसके प्रवर्तक आचर्य आषाढ़ माने गए), सामुच्छेदिकवाद (जिनके अनुसार नारक आदि भावों (प्रत्येक पदार्थ) का सम्पूर्ण विनाश होता है, इसके प्रवर्तक अश्वमित्र माने जाते थे), वैक्रियवाद (शीतलता और उष्णता दोनों एक
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