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६८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
कहकर धर्माचार्यों द्वारा चलाए गए वादों का विवरण प्राप्त होता है। पुनः अम्बट्ठसुत्त में पठमइन्भवाद, दुतियइब्भवाद, ततियइब्भवाद, दासिपुत्रवाद का उल्लेख प्राप्त होता है। इन शीर्षकों में जातिवाद, गोत्रवाद, मानववाद, और दासी पुत्र की कथाओं का उल्लेख है। यद्यपि दासिपुत्र और इभ् शब्द का अर्थ लगभग एक सा निकलता है, किन्तु 'वाद' में इसे रखा गया। ब्रह्मजाल सुत्त के इन वादों को वर्गीकृत कर प्रो० टी० डब्लू राइस डेविड्स' ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है
(१)प्रथम एक से चार - सस्सतवाद, जिसके अनुसार जगत् और आत्मा दोनों ही शाश्वत और नित्य हैं। (२) पाँच से आठ - एकच्च-सस्सतिकवाद जिनके अनुसार (अ) ईश्वर नित्य है, किन्तु व्यक्तिगत आत्मा नहीं (ब) सभी ईश्वर नित्य हैं किन्तु व्यक्तिगत आत्मा नहीं (स) कुछ ईश्वर नित्य हैं, आत्मा नहीं (द) शरीर नश्वर है, किन्तु उसमें सूक्ष्म हृदय, मन अथवा चेतन (Consciousness) का निवास है। (३) नौ से बारह अन्तनन्तिकवाद जो जगत् के नित्य और अनित्य दोनों ही होने की सम्भावना बताते हैं। (४) तेरह से सोलह अमर-विक्खेपिकवाद जो पाप और पुण्य के सम्बन्ध में अस्पष्ट मत रखते हैं। (५) सतरह से अठारहअधिच्च-समुप्पण्णिकवाद जो वस्तु की उत्पत्ति बिना कारण के भी सम्भव मानते हैं। (६) उन्नीस से पचास - उद्धम-अघटनिकवाद ६, जो भविष्य में भी, मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। (७) इक्यावन से सत्तावन - उच्छेदवाद, जिसके अनुसार शरीर की मृत्यु के साथ ही आत्मा का उच्छेद अर्थात् नाश हो जाता है, कुछ नहीं बचता। (८) अट्ठावन से बासठ - दिट्ठधम्मनिब्बानवाद के अनुसार इस जंगत् में आत्मा सम्पूर्ण सुख उठा सकती है, यह अवश्य है। उसके साधन अलग-अलग सम्भव हो सकते हैं।
इन बासठ (श्रमण पंथों) वादों के लिखित साक्ष्य नहीं होने के कारण इनमें से मात्र ६ बड़े संघों के दर्शन बाद तक पालि साहित्य में सुरक्षित हैं और वह है सामञफल सुत्त (पहले उल्लिखित) में वर्णित छह वाद: - (१) पूरण कस्सपवाद, पूरणकस्सप के द्वारा समर्थित अक्रियावाद जिसके अनुसार कोई कुछ करे या कराए, उसे न पाप मिलेगा न पुण्य। सांख्य दर्शन भी ऐसा ही मानता है कि आत्मा प्रकृति से भिन्न है और मारना, मरवाना आदि बातों का परिणाम उस पर नहीं होता। बी०एस० बरुआ इस मान्यता को 'अहेतुवाद' (No cause theory) (आत्मा को कोई भी कारण प्रभावित नहीं करता) अथवा उपरोक्त वर्णित 'अधिच्चसमुप्पाद ही मानते हैं। (२) मक्खलिगोसाल के द्वारा आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की गई, जिसके सिद्धान्त संसारशुद्धिवाद' या नियतिवाद से मिलते
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