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६२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
वस्तु कथंचित् नित्य व अनेक धर्मात्मक है उसमें क्रम से व युगपत् अर्थक्रिया होने में कोई बाधा नहीं आती है।६ अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि कथंचित् नित्यअन्त्यिात्मक वस्तु में निर्दोष कार्य-कारण व्यवस्था कैसे सम्भव है? जैन-दर्शन में कार्य-कारण सम्बन्ध सिद्धान्त 'निमित्तोपादन' के नाम से प्रचलित है। जैन-दर्शन के अनुसार द्रव्य का न तो सामान्य अंश उपादान कारण होता है और न विशेष अंश। अपितु सामान्य-विशेषात्मक द्रव्य ही उपादानकारण होता है। कहा भी गया है - “जो अपने स्वरूप को छोड़ता है ऐसा केवल क्षणिक पर्याय और जो अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है ऐसा केवल शाश्वत् सामान्य पदार्थ अर्थ का उपादान नहीं हो सकता।
जैनदर्शन कार्य की उत्पत्ति में दो कारणों को स्वीकृत करता है - १. उपादानकारण-जिस द्रव्य में कार्य निष्पन्न हो, वह उपादान कारण है।
२. निमित्तकारण -जो द्रव्य स्वयं कार्य रूप परिणमित न हो, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने से जिस पर कारणपने का आरोप आता है, वह निमित्तकारण है।
जैन दर्शन में उपादानकारण भी दो प्रकार का है११ -
१. त्रिकाली उपादानकारण - जो द्रव्य या गुण स्वयं कार्य रूप परिणमित हो, वह द्रव्य या गुण उस कार्य का त्रिकाली उपादान कारण है।
२. क्षणिकउपादानकारण - इसके भी दो भेद हैं।१२ १. अनन्तरपूर्वक्षणवर्तीपर्याय रूप क्षणिक उपादान कारणा २. तत्समय की योग्यता रूप क्षणिक उपादान कारण।
जैनदर्शन में उपादान कारणों के भेदों की स्वीकृति में वस्तु का वह अनेकधर्मात्मक स्वरूप निहित है जिसको स्वीकार किये बिना कार्य-कारण विषयक निर्दोष व्यवस्था सम्भव नहीं हो सकती है। त्रिकाली उपादान कारण जो नित्य है, इसे 'द्रव्यशक्ति' भी कहा जाता है। यह कार्य का नियामक/समर्थ कारण न होने पर भी इस तथ्य को सूचित करता है कि अमुक कार्य अमुक द्रव्य में ही होगा और यदि इसे समर्थ कारण माना जाए तो कार्य के नित्यत्व का प्रसंग उपस्थित होगा, जो कि युक्तिसंगत नहीं है। इसीलिए क्षणिक उपादान स्वीकृतकर उसे कार्य का समर्थ कारण माना गया है जो अनन्तरपूर्वक्षणवर्तीपर्याय के व्यय रूप एवं तत्समय की योग्यता रूप होता है। इसे 'पर्यायशक्ति' भी कहा जाता है। यह शक्ति अनित्य
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