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: श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ / जनवरी-मार्च २००६
सारांश यह है कि आचार्य श्री तुलसी जी ने ईसवी सन् की २० वीं शती में जैन सिद्धान्त-दीपिका का निर्माण करके तत्त्वार्थसूत्र का एक पूरक ग्रन्थ प्रस्तुत किया है, तत्त्वार्थसूत्र के व्याकरण ग्रन्थ, आगम एवं अन्य आचार्यों के मन्तव्य आधार बने हैं। जैन सिद्धान्त - दीपिका में किन-किन ग्रन्थों का आधार रहा है, पृथक से शोधलेख का विषय है, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसमें षड्द्रव्यों, नवतत्त्वों एवं जैनाचार का व्यवस्थित प्रतिपादन हुआ है, साथ ही सूत्रशैली में जैन तत्त्वज्ञान को प्रस्तुत करने की परम्परा पुनर्जीवित हुई है। यह ग्रन्थ अपनी प्रयोजनवत्ता लिए हुए है। इसमें शताधिक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण भी हैं तो सरलता एवं सूक्ष्मेक्षिका का आदि से अन्त तक निर्वाह भी है। साधारण संस्कृतज्ञ भी इसके हार्द को आसानी से हृदयंगम कर सकते हैं। वृत्तिकार ने युगीन सन्दर्भों को भी ध्यान में रखा है। तेरापंथ समाज में इसका पठन-पाठन प्रचलित है। एकाध स्थलों पर तेरापंथ के मूल प्रवर्तक आचार्य भिक्षु का नाम आने से यह कृति तेरापंथ सम्प्रदाय तक सीमित रह गई, अन्यथा यह जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों और जैन दर्शन के सभी जिज्ञासुओं के द्वारा अध्येतव्य है। जैन सिद्धान्त-दीपिका में ज्ञान और श्रेय का विशद निरूपण हुआ है, जो इसकी महत्ता और उपयोगिता को स्पष्ट करता है।
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