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५२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ / जनवरी-मार्च २००६
तीसरा विद्याधरों का वंश है जो अत्यन्त मनोहर है और चौथा हरिवंश है, जो संसार में प्रसिद्ध कहा गया है। इक्ष्वाकुवंश में भगवान ऋषभदेव उत्पन्न हुए और उनके पुत्र भरत के अर्ककीर्ति महाप्रतापी पुत्र हुआ। अर्क सूर्य का पर्याय है, इसलिए इनका वंश सूर्यवंश कहलाने लगा। भगवान ऋषभदेव की दूसरी रानी से बाहुबली नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र सोमयश था। सोम चन्द्रमा को कहते हैं, उसी से सोमवंश अथवा चन्द्रवंश की परम्परा चली। इसी प्रकार अन्य वंश भी प्रसिद्ध हुए किन्तु यहाँ संक्षेप में ही कथन कर रही हूँ। ब्राह्मण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी एक ऐतिहासिक घटना इस पुराण में उपलब्ध है।
समाज में स्त्रियों को वर चुनने की स्वतन्त्रता थी । इसलिए उस काल में स्त्रियों के लिए ही स्वयंवर होते थे, पुरुषों के लिए नहीं। उस समय बाल विवाह नहीं होते थे। किन्तु बहु-विवाह का प्रचलन था । 'केकया रेजे कलानां पारमागता'३ अर्थात् कैकयी विभिन्न कलाओं में निष्णात थी, यह तथ्य उस समय की स्त्री-शिक्षा एवं कलाओं के बारे में जानकारी देता है। राजा आदि सामान्य जन का ज्योतिष विद्या एवं निमित्त ज्ञान में विश्वास था । तत्कालीन लोगों के आचार-विचार को रेखांकित करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं- “शरन्निशाकर श्वेतवृत्तैर्मुक्ताफलोपमैः आनन्ददानच तुरैर्गुणवद्भिः प्रसाधितः”” अर्थात् शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान श्वेतवृत्त अर्थात् निर्मल चरित्र के धारक, मुक्ताफल के समान तथा आनन्द देने में चतुर, ऐसे गुणी मनुष्यों से वह देश सदा सुशोभित रहता था।
कई प्रसंगों पर राजाओं को जैन मुनियों द्वारा तात्त्विक एवं आचारिक उपदेश दिये गये हैं, जो आज भी उतने ही सामयिक एवं प्रासंगिक हैं। उनमें से कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं
“हिंसायाः कारणं तद्धि सा च संसारकारणम् ५ पीड़ा उत्पन्न करने वाला वचन हिंसा का कारण है और हिंसा संसार का कारण है।
“धर्मस्य हि दया मूलं तस्या मूलमहिंसनम् " धर्म का मूल दया है और दया का मूल अहिंसा रूप परिणाम है।
"धर्मेण मोक्षं प्राप्नोति ७ धर्म से मोक्ष प्राप्त होता है।
" कायेन मनसा वाचा यानि कर्माणि मानवाः । कुर्वते तानि यच्छिन्ति निकचानि फलं ध्रुवम् ।
कर्मणामिति विज्ञाय पुण्यापुण्यात्मिकां गतिम् । दृढां कृत्वा मतिं धर्मे स्वमुत्तारय
दुःखतः ॥ ""
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