Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 63
________________ ५६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ पूरे पद के चारो भागों के अलग-अलग अर्थ और तात्पर्य समझ लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन सूत्र का तात्पर्य उस उपदेश से है जिसे उन्होंने बोध गया में ज्ञान (संबोधि) प्राप्त करने के बाद सारनाथ आकर सबसे पहले पंचवर्गीय भिक्षुओं को दिया था। यह माना जाता है कि ज्ञान सूत्र (प्रतीत्य समुत्पाद) उन्होंने बोधगया में प्राप्त किया था तथा उसका भाष्य और विश्लेषण उन्होंने सारनाथ में किया था। इसे मानव के दुःख मुक्त करने का औषधि पत्र या निदान पत्र (प्रस्क्रिप्शन) कहा गया है। वास्तव में प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन सूत्र दुःख मुक्ति का निदान पत्र ही था। इसमें भगवान बुद्ध ने पहले बताया था कि दो अतियों से दूर रहना सुखी जीवन का प्रथम चरण है। ये दो अतियाँ-काम सुख की अति और काय कलेश की अति है। इनका आचरण न करना सुखी रहने का उत्तम मार्ग है जिसे 'मध्यम मार्ग' या 'मज्झिमा पतिपदा' कहा गया है। एक कुशल वैद्य की भांति महाभिषक गौतम बुद्ध ने सबसे पहले दःख दर्द रूपी रोग का कारण खोजा कि आखिर यह दुःख रोग होता ही क्यों है। सुख और क्लेश की चरम सीमा ही दुःख है। संसार में गरीब, अमीर, सेठ, साहूकार, राजा, प्रजा सभी किसी न किसी दुःख से पीड़ित हैं। यह दःख शारीरिक, मानसिक और वैचारिक हो सकता है। उन्होंने बताया कि सभी प्रकार के दु:खों का मूल कारण तृष्णा, लोभ और लालच है। दो से चार, चार से आठ, सोलह, सौ, हजार, लाख, करोड़ की बढ़ती हुई इच्छा ही तृष्णा है। उन्होंने इस दुःखरोग को दूर करने की औषधि, निदान और उपचार भी खोजा। यह उपाय या औषधि निदान है- शील का आचरण। इसके लिये पंचशील का आचरण आवश्यक है। सबसे बाद में उन्होंने उस औषधि निदान की प्रयोग विधि बतलाई (दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा)। ९ इस औषधि निदान के आठ अंग या भाग हैं जिनके क्रमिक आचरण से ही रोग दूर होता है। इसलिये इस निदान पत्र को "अष्टांगिक मार्ग" भी कहा जाता है। अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग इस प्रकार हैं:१. सम्मा दिट्ठि- सही और वास्तविक रूप में समझना २. सम्मा संकल्प- सम्यक् संकल्प, दृढ़ निश्चय ३. सम्मा वाचा- झूठ, कठोर न बोलना और चुगली न करना ४. सम्मा कमन्त- कल्याणकारी और हितकारी कार्य करना ५. सम्मा आजीव- विधि सम्मत आजीविका कमाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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