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भारतीय व्याकरण शास्त्र की परम्परा : ४१
४. सम्बन्धचिन्ता - इसके प्रणेता स्थविर संघरक्खित हैं। यह ग्रंथ गद्यपद्यमय है।
५. कारिका - यह धम्मसेनापति की कृति है और बर्मा के राजा अनोरत्त के पुत्र के राज्यकाल में लिखी गयी है। इसमें विभिन्न कांडों में ५६८ कारिकाएं
६. सहत्थभेदचिन्ता - यह भी कारिकाओं में प्रस्तुत किया गया ग्रंथ है। इसके रचयिता बर्मा के स्थविर सद्धम्मसिरि हैं और रचनाकाल बारहवीं सदी।
७. रूपसिद्धि - इस ग्रंथ के रचयिता बुद्धप्पिय दीपङ्कर हैं और इनका समय तेरहवीं शताब्दी है। भाषा तथा शैली की दृष्टि से यह ग्रंथ गंभीर, विस्तृत है और इसमें कच्चायन के सत्रों को प्रक्रियानसार भिन्न क्रम में रखा गया है। इसमें सात कांड हैं।
८. बालावतार - इस ग्रंथ में सात अध्याय हैं। यह धम्मकित्ति थेर द्वारा रचित है। १४वीं शताब्दी में लिखा यह ग्रंथ 'कच्चायन व्याकरण' का संक्षिप्त रूप है।
९. सहसारत्थजालिनी - इसके रचयिता भदन्त नागित थेर हैं तथा इसका रचनाकाल १४वीं शताब्दी है। इसमें ५१६ कारिकाएं हैं।
१०. कच्चायनभेद - १७८ कारिकाओं वाले इस ग्रंथ की रचना बर्मा के महायस ने १४वीं सदी में की। इस पर 'सारत्थविकासिनी' तथा 'कच्चायनभेद' नामक दो टीकाएं भी हैं।
११. कच्चायनसार - इसे भी महायस की ही कृति माना जाता है। इसमें ७२ कारिकाएं हैं। इसमें सामान्य, आख्यात, कृत, कारक, समास तथा तद्धितनिर्देश वर्णित हैं। गन्धवंस में इसके लेखक का नाम भिक्खु धम्मानंद बताया गया है।
१२. सहबिन्दु - इसके रचनाकार बर्मा के राजा क्य्च्वा हैं और इसमें २० कारिकाएं हैं। यह १५वीं शताब्दी का ग्रंथ है।
१३. वाचकोपदेस - महाविजितावी थेर ने ही इसे भी लिखा है। इसमें वाचक को दस प्रकार का बताकर उनका विस्तार से वर्णन किया गया है। यह ग्रंथ गद्य-पद्य मिश्रित है।
१४. अभिनवचूळनिरुत्ति - कच्चायन सूत्रों के अपवादों की व्याख्या प्रस्तुत करने वाले इस ग्रंथ के प्रणेता सिरिसद्धम्मालङ्कार हैं।
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