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श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
सम्प्रदाय और ५. सद्दनीति सम्प्रदाय। इनमें से बोधिसत्व और सब्बगुणाकर सम्प्रदाय अब उपलब्ध नहीं हैं। उपलब्ध सम्प्रदायों में कच्चायन व्याकरण सबसे प्राचीन है। इसके अतिरिक्त अट्ठकथाओं में भी व्याकरण से सम्बन्धित सामग्री प्राप्त होती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि अतीत में भी पालि में शब्दों की निरुक्ति तथा व्याकरण सम्बन्धी नियमों की 'कच्चायन व्याकरण' से भिन्न परम्परा विद्यमान थी और यह कालान्तर में पालि व्याकरण सम्प्रदायों के अभ्युदय के पश्चात् समाप्त हो गयी। कच्चायन व्याकरण सम्प्रदाय
जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं, 'कच्चायन व्याकरण- पालि व्याकरणों में प्राचीनतम है। इसका दूसरा नाम कच्चायन गन्ध या सन्धिकप्प भी है। इसका रचनाकाल विभिन्न प्रमाणों से सातवीं शताब्दी या उसके बाद का निश्चित होता है। इस व्याकरण में ६७५ सूत्र हैं। ये सूत्र, वृत्ति तथा उदाहरणों के रूप में उपलब्ध हैं३३ और सबके रचनाकार अलग-अलग बतलाए गये हैं। लेकिन दूसरी ओर सम्पूर्ण प्रकरण के रचयिता के रूप में महाकच्चायन का नाम आता है। इससे ऐसा माना जाता है कि यह एक परम्परा का ग्रंथ है जो बाद में इस परम्परा के प्रमुख आचार्य के नाम पर प्रसिद्ध हो गया। इस व्याकरण को चार कप्पों में विभाजित किया गया है, ये हैं - सन्धिकप्प, नामकप्प, आख्याकप्प और किब्बिधानकप्प। कच्चायन के सूत्रों पर प्रक्रियानुसार लिखा गया ग्रंथ 'रूपसिद्धि' में इसके सात कांडों की चर्चा है।३४
___ 'कच्चायन व्याकरण' के आधार पर बाद में कई अन्य ग्रंथों की रचना हुई जिससे इसका एक सम्प्रदाय ही प्रचलित हो गया। ये इस प्रकार हैं -
१. कच्चायनवण्णना - म्यांमार के भिक्षु महाविजितावी ने इस ग्रंथ की रचना की।३५ यह सत्रहवीं शताब्दी का ग्रंथ सिद्ध होता है। इस ग्रंथ में वृत्ति में आए हुए प्रयोगों की सिद्धि प्रस्तुत की गयी है। पाठ सम्बन्धी विचार भी इसमें प्रस्तुत किये गये हैं।
२. कच्चायन न्यास - आचार्य विमलबुद्धि ने कच्चायन के सूत्रों पर यह न्यास लिखा है। यह कच्चायन की शास्त्रीय व्याख्या है। बारहवीं शताब्दी में बर्मा के आचार्य सद्धम्मजोतिपाल या छपद ने इस पर 'न्यासप्रदीप' नामक टीका और सत्रहवीं शताब्दी में दाठानाग ने 'निरुत्तिसारमञ्जूसा' नामक टीका लिखी।
३. सुत्तनिहेस - इसके रचयिता बर्मा के आचार्य छपद माने गये हैं। इसका रचनाकाल ११८१ है।
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