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भारतीय व्याकरण शास्त्र की परम्परा : ३९
प्राकृत सर्वस्व
मार्कण्डेय का 'प्राकृत सर्वस्व' एक महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। इसका रचनाकाल भी १५वीं सदी है। मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची ये चार भेद किये हैं। भाषा में महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी, विभाषा में शकारी, चाण्डाली, शबरी, आभीरी और ढक्की, अपभ्रंश के नागर, ब्राचड और उपनागर एवं पैशाची के कैकेयी, शौरसेनी और पाञ्चाली आदि भेद किये हैं। हेमचन्द्र ने जहां पश्चिमी प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियों का अनुशासन किया है वहीं मार्कण्डेय ने पूर्वीय प्राकृत की प्रवृत्तियों का नियमन प्रदर्शित किया है। इन व्याकरणों के अतिरिक्त प्राकृत भाषा के लिए रामतर्कवागीश का प्राकृतकल्पतरु १७वीं सदी, शुभचन्द का शब्दचिन्तामणि, श्रुतसागर का औदार्य चिन्तामणि, अप्पय दीक्षित का प्राकृतमणिदीप (१६वीं सदी), रघुनाथकवि का प्राकृतानन्द १८वीं सदी और देवसुन्दर का प्राकृतयुक्ति भी प्राकृत व्याकरणों की श्रृंखला में आते हैं। पालि व्याकरण के शास्त्र
पालि व्याकरणों की रचना इसके साहित्य के बहुत बाद सातवीं शताब्दी के बाद शुरू हुई। लेकिन पालि भाषा के व्याकरणों के बारे में यह सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह रही है कि इसके व्याकरण पालि भाषा में ही लिखे गये। पालि प्राकृत भाषाओं का ही एक प्राचीनतम रूप है। लेकिन अन्य प्राकृतों के जितने भी व्याकरण लिखे गये उन सबकी भाषा संस्कृत रही है। इस मामले में पालि व्याकरणों का अपना विशेष योगदान है। यद्यपि इन व्याकरणों को भी ठीक से समझने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक हो जाता है। पालि व्याकरणों में संस्कृत व्याकरण की बहुत सी संज्ञाएं ली गयी हैं। संस्कृत व्याकरण के इस ऋण को स्वीकारते हुए ही कच्चायन ने 'परसमजा सत्र' की रचना की। जिसकी वृत्ति का उद्घोष है - संस्कृत ग्रंथों में घोष, अघोष आदि जो संज्ञाएं हैं, वे प्रयुक्त होने पर यहां भी ग्रहण की जाती हैं। न्यासकार ने इस सूत्र का व्याख्यान दिया है - परेसं समझा परसमजा, वेय्याकरणानं समझा ति अत्थो, परस्मि वा समझा परसमा, सक्कतगन्थे समझा ति अत्थो। कच्चायनवण्णना में भी इस सूत्र की व्याख्या में संस्कृत वैयाकरणों द्वारा दी गयी संज्ञाओं की स्वीकृति की ओर इंगित किया गया है।३२ पालि व्याकरण के सम्प्रदाय
__ पालि के पांच व्याकरण सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है। १. बोधिसत्व सम्प्रदाय, २. कच्चायन सम्प्रदाय, ३. सब्बगुणाकर सम्प्रदाय, ४. मोग्गल्लायन
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