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श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
में खोदी हुई खानों में सजातीय पृथ्वी के अंकुर उत्पन्न होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी सजीव है- समान जातीयांकुरोत्पादात्। जल में जीवन की सिद्धि करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्य और तिर्यंच गर्भावस्था के प्रारम्भ में तरल होते हैं वैसे ही जल तरल है। अत: वह जब तक किसी विरोधी वस्तु से उपहत नहीं होता तब तक सजीव है- शास्त्रानुपहतद्रवत्वात् । ईंधन आदि आहार के द्वारा अग्नि बढ़ती है, इसलिए अग्नि सजीव है- आहारेणवृद्धिदर्शनात्। वायु बिना किसी प्रेरणा के ही अनियमित रूप से घूमती है, अत: वह सजीव है- अपराप्रेरितत्वे तिर्यगनियमित- गतिमत्त्वात्। वनस्पति का छेदन आदि करने से उसे ग्लानि आदि का अनुभव होता है। अत: वनस्पति सजीव है- छेदादिभिग्लानिदर्शनात्।' वनस्पति की सजीवता की सिद्धि आचारांगसूत्र में मनुष्य के साथ तुलना करते हुए विस्तार से की गई है। (द्रष्टव्य, आचारांग १. १५)
७.जैन सिद्धान्त-दीपिका में भी तत्त्वार्थसूत्र की भांति धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-इन पाँच अस्तिकाय द्रव्यों का कथन करने के पश्चात् काल को औपचारिक रूप से द्रव्य माना गया है। आचार्यश्री ने सभी द्रव्यों के संक्षिप्त लक्षण दिए हैं, जो तत्त्वार्थसूत्र से पूर्णतः साम्य रखते हैं।
(i) धर्मद्रव्य- गतिसहायो धर्मः (१.४)
जीव और पुद्गल की गति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय है।
(ii) अधर्मद्रव्य- स्थितिसहायोऽधर्मः। (१.५)
जीव और पुद्गलों के ठहरने में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य अधर्मास्तिकाय है।
(ii) आकाशद्रव्य- अवगाहलक्षण आकाशः (१.६)
सभी द्रव्यों को स्थान देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय है। यहाँ पर वृत्ति में आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि दिशाएँ भी आकाश स्वरूप ही हैं, वे स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं।
(iv) पुद्गलद्रव्य- स्पर्शरसगन्धवर्णवान् पुद्गलः (१. १४)
शब्द-बन्ध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योत प्रभावांश्च। (१.१५)
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