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तत्त्वार्थसूत्र का पूरक ग्रन्थ : जैन सिद्धान्त-दीपिका : २७
उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन सिद्धान्तदीपिका ने जैन ज्ञानमीमांसा के अनेक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिए हैं, जो इसके वैशिष्ट्य को इंगित करते हैं। ज्ञेय निरूपण
ज्ञेय के व्यापक क्षेत्र में षड्द्रव्यों एवं नव तत्त्वों का समावेश हो जाता है। षड्द्रव्य हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव। नव तत्त्व हैं- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष। इनके सम्बन्ध में दोनों ग्रन्थों में प्रायः पूरी समानता है। जहाँ पर विशेषता या विषमता है, चर्चा यहाँ की जा रही है
१. तत्त्वार्थसूत्र में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, एवं मोक्षइन सात तत्त्वों का ही निरूपण है, पुण्य एवं पाप तत्त्व का समावेश आस्रव में कर लिया गया है। जैन सिद्धान्त-दीपिका में पुण्य एवं पाप को पृथक तत्त्वों के रूप में स्थान दिया गया है, यथा- जीवाऽजीव-पुण्य-पापास्रव-संवर निर्जरा-बन्ध-मोक्ष स्तत्त्वम् (२.१)। तत्त्वों की यह गणना आगम परम्परा का अनुसरण है। आचार्य श्री तुलसी जी एवं सम्पादक (आचार्य श्री) महाप्रज्ञ जी ने पुण्य एवं पाप को पृथक महत्त्व देकर सूझबूझ पूर्ण कार्य किया है। क्योंकि पुण्य-पाप का अपना महत्त्व है। पुण्य पाप को आस्रव में सम्मिलित करने से ये दोनों हेय की श्रेणी में आ जाते हैं, जब कि पुण्य को पाप की भांति हेय नहीं माना जा सकता। पुण्य एवं पाप परस्पर विरोधी हैं। पुण्य (या सत्प्रवृत्ति) को पाप की भांति एकान्त या त्याज्य मान लिया जाय तो साधना का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाता है। पुण्य को पाप के समान त्याज्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि पुण्यकर्म तो सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान में भी सहायक है, जबकि पाप उसमें बाधक है। आगम में सर्वत्र पाप को ही त्याज्य बताया गया है, पुण्य को नहीं।
कर्मसिद्धान्त के अनुसार जब तक पापकर्म की प्रकृतियों का चतुःस्थानिक अनुभाग घटकर विस्थानिक नहीं होता और पुण्यप्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतुःस्थानिक नहीं होता तबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता है। इसी प्रकार पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग जबतक उत्कृष्ट नहीं होता तब तक केवल ज्ञान प्रकट नहीं होता है। इस तरह सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान की उत्पत्ति में पुण्य के अनुभाग का बढ़ना एवं पाप प्रकृति के अनुभाग का घटना आवश्यक है। इस दृष्टि से पाप एवं पुण्य एक दूसरे के विरोधी सिद्ध होते हैं। अत: पाप एवं पुण्य का पृथक् कथन आगम एवं कर्म की दृष्टि से उचित ही है। (विशेष विवरण हेतु
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